रुपा ने जैसे ही जवानी की दहलीज़ पर कदम रखा घर में उसके विवाह की सुगबुगहाट शुरु हो गई। चलते फिरते, उठते बैठते उसे शादी बाद ससुराल में रहने के तौर तरीके सिखाए जाने लगे। कभी वह अपनी मां को पिता से बात करते हुए सुनती कि “सुनिए जी! अपनी रुपा के लिए ऐसा लड़का ढूंढें जो अच्छा कमाता हो” तो कभी वह दादी मां को यह कहते हुए सुनती कि “लड़के के पास घर जायदाद ज़रुर होनी चाहिए।” इस प्रकार जीवन में रुपा ने जैसे ही विवाह जैसी संस्था के बारे में जाना समझा, ठीक उसी के साथ यह भी समझ लिया कि विवाह जैसे पवित्र बंधन के लिए पैसा ज़्यादा ज़रुरी है। तभी ज़िंदगी ऐश व आराम से गुज़रेगी। यह हमारे समाज का केवल एक उदाहरण है। अगर हम अपने आसपास देखें तो हमें अवश्य यह देखने को मिलेगा कि परिवार को बनाने, उसे संवारने के लिए जिन रिश्तों की ज़रुरत होती है उसे लोग पैसे की बुनियाद पर ही टिकाने की कोशिश करते हैं। और यही कारण है कि परिवार और रिश्तों से अपनत्व, प्रेम व सहयोग समाप्त होता जा रहा है।
कहा जाता है कि परिवार ही समाज की नींव होता है। यदि परिवार नफरत, साजिशों से मुक्त हो तो समाज भी सभ्य बनेगा। इसीलिए सदियों से परिवार को मज़बूत बनाने पर ज़ोर दिया जाता रहा है। और परिवार तब ही मज़बूत और सशक्त बनता है जब रिश्तों में पारस्परिक सहयोग एवं प्रेम, विश्वास और अपनत्व हो। जहां परिवार का प्रत्येक सदस्य सुरक्षित महसूस कर सके। यदि रिश्तों में प्यार और विश्वास ना हो तो परिवार टूटने लगता है। लेकिन इस भौतिकवादी युग ने इंसान को कहीं का नहीं छोड़ा। आज भोग एवं विलासिता के कारण परिवार की रीढ़ की हड्डी माने जाने वाले यह रिश्ते टूटने लगे हैं।
जिसका उदाहरण कभी आपके सामने सोनम रघुवंशी, तो कभी मुस्कान रस्तोगी तो कभी कोई अन्य के रुप में सामने आता है। यदि हम ज़्यादा पुराने आंकड़ों में ना जाकर केवल हाल ही की घटनाओं का विश्लेषण करें तो हमें स्पष्ट रुप से ज्ञात हो जाता है कि इन सभी घटनाओं के पीछे का जो मुख्य कारण है वह भोग एवं विलासिता ही है। भौतिकवादी युग ने ही आज की युवा पीढ़ी में इतना अधिक ज़हर घोल कर रख दिया है कि वे रिश्तों के अर्थ तक नहीं जान व समझ पाते। प्रेम, सहयोग, विश्वास एवं अपनत्व की बात तो दूर की कौड़ी समान है।
भौतिकवादिता के इस युग में जहां उन्हें केवल पैसा और ऐश ही सबकुछ लगता है ऐसे में वे अपने संस्कार और सामाजिक मूल्यों को भी भौतिकता के भेंट चढ़ा देते हैं। परिणामस्वरुप हम समाज में ऐसी ऐसी निर्दयी घटनाएं देखते और सुनते हैं जिससे मानवता के प्रति प्रेम रखने वालों का कलेजा मुंह को आ जाए।
एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक देश में घटने वाली अपराधिक घटनाओं में 65 प्रतिशत घटनाएं ऐसी होती हैं जिसमें युवा शामिल होते हैं। जो आयु उमंगों, सपनों और हौसलों की उड़ान की होती है उस आयु को आज के युवा विलासिता और मौज मस्ती के चक्कर में पूरी तरह बर्बाद कर डालते हैं। जिस कारण रिश्तों में प्रेम एवं अपनत्व शून्य हो गया है तो वहीं दूसरी ओर नशे की लत के कारण गुस्सा, तनाव यहां तक कि अपराध की प्रवृत्ति भी पनपने लगती है।
यही कारण है कि विवाह रुपी संस्था जो परिवार रुपी संस्था का प्रथम चरण माना जाता है धाराशायी होने लगी है। आज विवाह को एक व्यवसायिक रुप दे दिया गया है जिस कारण राजा रघुवंशी जैसी निर्दयी घटनाएं घटित हो रही हैं। विवाह में नैतिकता, सामाजिकता एवं दायित्व से परे एक दूसरे की सामाजिक हैसियत, आय, आर्थिक स्थिति इत्यादि को ही प्राथमिकता दी जाने लगी है और यह खराबी केवल युवाओं तक ही नहीं सीमित है बल्कि परिवार के बड़े बुज़ुर्गों द्वारा भी बच्चों का विवाह करते समय इन्हीं चीज़ों को प्राथमिकता दी जाने लगी है जिस कारण सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों का पतन हो रहा है और विवाह के बाद अनेकों समस्याएं जन्म ले रही हैं।
पारिवारिक मूल्यों को सशक्त करने एवं समाज को दिशाहीन होने से बचाने के लिए विवाह के व्यवसायिकरण से आगे बढ़ते हुए विवाह के बुनियादी सिद्धांतों को समझने और उन्हें स्वीकार करने की आवश्यकता है। साथ ही हमें अपने बच्चों को बचपन से प्रेम एवं नैतिक मूल्यों का पाठ पुनः पढ़ाना होगा। उन्हें रिश्तों के महत्व को समझाना होगा। जीवन के वास्तविक उद्देश्यों से परिचित कराना होगा तभी हम बिखरते हुए समाज को एक बार फिर से नैतिक मूल्यों में बांधने में सफ़ल हो पाएंगे। निस्संदेह यह कार्य सरल नहीं है बल्कि यह हमारा समय, ठोस रणनीति और कठिन परिश्रम मांगता है। बड़े उद्देश्य के लिए बड़े एवं निरंत्तर सतत् प्रयास की आवश्यकता होती है तभी हम समाज में परिवर्तन देख सकते हैं।
पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु का कथन है कि, “किसी महान उद्देश्य के लिए निष्ठापूर्वक और कुशलतापूर्वक किया गया कार्य, भले ही उसे तत्काल मान्यता न मिले, अंततः फल देता है।”