ज़िंदगी में जब शब्द कम पड़ जाएँ, जब हालात हाथ से निकलने लगें, तब जो चीज़ हमारे साथ रह जाती है वो है दुआ। अर्थात दिल की पुकार, एक ऐसी सच्ची आवाज़ जो इंसान से ऊपरवाले तक जाती है चुपचाप, मगर असरदार। यह हथियार हर किसी के पास होता है पुरुष, महिला, युवा, वृद्ध, हर दिल के पास। केवल अंतर सिर्फ़ इतना है कि कोई इसे पहचानता है, कोई नहीं।
हम ज़िंदगी में दो तरह की दुआएँ माँगते हैं:
छोटी दुआएँ — जैसे “आज मेरा दिन अच्छा जाए”, “मुझे वो पसंदीदा खाना मिल जाए”, “फोन ठीक से चल जाए”, “इंटरनेट चालू रहे” इत्यादि।
ये दुआएँ अक्सर तुरंत पूरी हो जाती हैं। हम सोचते भी नहीं कि इन्हें भी किसी ने कबूल किया।
बड़ी दुआएँ — जैसे “मैं डॉक्टर बन जाऊँ”, “मुझे एक सच्चा जीवनसाथी मिले”, “मेरे माँ-बाप का सपना पूरा हो”...
ये दुआएँ वक्त माँगती हैं। ये दुआएँ हमारी मेहनत के रास्तों से होकर पूरी होती हैं।
मान लीजिए आपने दुआ माँगी कि आप डॉक्टर बनें। क्या ये एक दिन में मुमकिन है? नहीं। मगर ईश्वर आपकी बात सुनता है, और फिर वह आपको उस रास्ते पर चलाना शुरू करता है जहाँ से आपकी मंज़िल तक पहुँचना संभव हो।
वह आपको अच्छे शिक्षक देता है, संघर्ष देता है, परीक्षा देता है, हौसला देता है, ताकि आप उस दुआ के काबिल बनें। दुआ पूरी होती है, लेकिन समय पर।
हर दुआ कबूल नहीं होती — और यह भी अल्लाह की एक रहमत होती है।
कई बार हम तहेदिल से कुछ माँगते हैं, पर वो नहीं मिलता।
हमें लगता है कि हमारी दुआ कबूल नहीं हुई।
हम उदास हो जाते हैं।
पर समय बीतता है, और तब समझ आता है जो नहीं मिला, वो शायद हमारे लिए सही नहीं था।
एक लड़की ने किसी खास शख्स से शादी की दुआ माँगी थी। बहुत रो-रो कर, पर बात नहीं बनी। वह टूटी। कुछ साल बाद उसे एक और इंसान मिला जो उससे कहीं ज़्यादा समझदार, सम्मान देने वाला और जीवन को समझने वाला निकला। तब उसे समझ आया, उसकी पहली दुआ कबूल क्यों नहीं हुई... क्योंकि उससे बेहतर लिखा गया था।
कभी-कभी हमारी ना-कबूल दुआ ही हमारी सबसे बड़ी हिफ़ाज़त होती है।
दुआ: एक हथियार
जो नज़र नहीं आता, पर असर छोड़ जाता है, जब ज़िंदगी सवाल बन जाए, और जवाब कहीं न मिलें,
जब रास्ते बंद हो जाएँ, और उम्मीदें थम जाएँ, तब एक हथियार काम आता है — दुआ। यह न कोई तलवार है, न कोई आवाज़, न ही कोई ज़ोर… यह बस एक मौन विश्वास है जो हर दिल में बसता है। पुरुष हो या महिला, जवान हो या वृद्ध, गरीब हो या अमीर, हर इंसान के पास यह हथियार होता है, बस अक्सर हमें इसका एहसास नहीं होता।
दुआ क्या है?
दुआ वो खामोश चीख़ है जो आसमान तक जाती है। यह आत्मा से निकली वह पुकार है जिसमें शब्दों की ज़रूरत नहीं होती बस सच्चे दिल की एक आस होती है। कभी यह एक माँ के काँपते होंठों से निकलती है, कभी एक युवा के अकेलेपन की रातों से, कभी किसी पिता के माथे की चिंता से, तो कभी किसी बुज़ुर्ग की थकी हुई साँसों से। दुआ हर किसी के लिए है, और हर कोई दुआ कर सकता है।
दुआ: जब कुछ नहीं चलता, तब यही चलता है
जब मेहनत जवाब दे दे, तब दुआ ज़िंदा रखती है। जब अपने साथ छोड़ दें, तब दुआ अकेलेपन को ढक लेती है। जब हालात ज़ालिम हो जाएँ, तब दुआ हथियार बन जाती है।
एक छात्र परीक्षा से पहले कहता है, "ऐ रब, बस पास करवा देना"
एक बेरोज़गार नौजवान हर सुबह कहता है, "आज कोई काम मिल जाए"
एक पिता अस्पताल के बाहर हाथ जोड़ता है, "मेरे बच्चे को कुछ न हो"
एक माँ रोटी बेलते हुए बस मन ही मन कहती है, "सब खुश रहें"
ये सब दुआएँ हैं। ये दिखती नहीं, पर सब कुछ बदल सकती हैं।
दुआ: कोई धर्म नहीं, बस एक जुड़ाव है
दुआ सिर्फ़ किसी विशेष धर्म की परंपरा नहीं, यह इंसान की ज़रूरत है। हिंदू मंत्र पढ़ता है, मुसलमान हाथ उठाता है, सिख बानी गाता है, ईसाई प्रेयर करता है, लेकिन सबका मक़सद एक ही होता है, अपने अंदर की बात उस ऊपरवाले तक पहुँचना। यह टूटे हुए दिल की आवाज़ होती है।
यह हथियार न दिखता है, न बिकता है — बस चलता है
दुआ एक ऐसी ताक़त है जो वक़्त को मोड़ सकती है।
यह हालात को नहीं, इंसान के अंदर के भरोसे को बदलती है।
यह डर को हिम्मत में बदलती है।
घबराहट को शांति में। ग़ुस्से को क्षमा में और थकान को हौसले में।
जब आप थक जाएँ, टूट जाएँ, हार मान लें तो एक पल के लिए आँख बंद करें और दिल से कहें,
"हे ऊपरवाले, अब सब तेरे हवाले।"
यही है वो हथियार — जो अदृश्य है, लेकिन सबसे प्रभावशाली है।
जब ज़िंदगी के शोर में शब्द खो जाते हैं, तब दिल की खामोशी से एक नज़ाकत भरी सदा उठती है दुआ। दुआ कोई रीति नहीं, कोई रस्म नहीं, यह आत्मा से निकली वह पुकार है जो बिना आवाज़ के भी सुनी जाती है। यह इंसान और उसके रचयिता के बीच की वह कड़ी है, जहाँ भाषा की कोई ज़रूरत नहीं होती सिर्फ़ सच्चे दिल का होना ही काफ़ी है।
दुआ: एक रिश्ता, जो अनकहा होता है
दुआ एक जरिया है, अपने ईश्वर से, उस अज्ञात परंतु सजीव सत्ता से रिश्ता बनाने का।
जब हम दुआ करते हैं, तो हम केवल कुछ माँगते नहीं — हम अपने अंदर की भावनाओं को, अपने डर को, अपनी उम्मीदों को एक ऐसे दोस्त के सामने खोलते हैं जो सब जानता है, फिर भी सुनना चाहता है। दुआ में वो अपनापन है, जिससे हम अपने परमात्मा को सिर्फ़ पूज्य नहीं, बल्कि अपना दोस्त बना लेते हैं। उसके सामने हम नकाब उतार देते हैं — न दिखावा, न औपचारिकता, बस एक सच्चा इंसान।
फ़रहीन
रामनगर, उत्तराखंड