आज के आधुनिक और शिक्षित समाज में एक बहुत गंभीर समस्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है और वह है अविवाहित बेटियों की बढ़ती संख्या। यह न सिर्फ एक पारिवारिक चिंता है बल्कि सामाजिक असंतुलन का कारण भी बनता जा रहा है। ज़िम्मेदारी केवल माँ-बाप की नहीं, बल्कि पूरे समाज की बनती है कि वह इन बेटियों के लिए निकाह के संभावनाओं को आसान बनाए।
1. निकाह की धार्मिक अहमियत
इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार, निकाह को एक सुन्नत और अल्लाह की रहमत बताया गया है।
क़ुरआन में कहा गया: “और तुम में जो कुंवारे हों उनका निकाह कराओ” (अल नूर:32)
"निकाह मेरी सुन्नत है और जो मेरी सुन्नत से मुंह मोड़े, वह मुझसे नहीं।" (हदीस)
निकाह केवल शारीरिक ज़रूरत की पूर्ति नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक, सामाजिक और नैतिक ज़िम्मेदारी है। इससे परिवार बनता है, नस्लें बढ़ती हैं और समाज में संतुलन आता है।
2. आंकड़ों की सच्चाई: क्यों बढ़ रही हैं अविवाहित लड़कियों की संख्या?
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5, भारत 2019-21) के अनुसार, शहरी भारत में 25 वर्ष से ऊपर की 30% महिलाएं अभी तक अविवाहित हैं और ग्रामीण भारत में भी यह आंकड़ा तेजी से बढ़ रहा है।
भारत की जनगणना 2011 के अनुसार, भारत में 30 से 49 वर्ष तक की 2.5 करोड़ महिलाएं ऐसी थीं जो कभी विवाह के बंधन में नहीं बंधीं।
Muslim Marriage Statistics (India, Pew Research 2021) के अनुसार, मुस्लिम समुदाय में भी शिक्षा के बढ़ने के साथ लड़कियों की शादी की उम्र बढ़ रही है, परंतु लड़कों में वह मानसिकता नहीं आ रही कि वे पढ़ी-लिखी लड़कियों से निकाह करें।
3. सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पहलू
जब किसी लड़की की उम्र निकलने लगती है और शादी नहीं होती तो उस पर तानों और सामाजिक दबावों की बौछार होती है। रिश्तेदार, पड़ोसी, यहां तक कि दफ्तर में सहकर्मी भी निजी ज़िंदगी पर सवाल उठाते हैं। लड़कियाँ खुद समाज से कटने लगती हैं, आत्मविश्वास घटने लगता है।
यह भी पाया गया है कि पढ़ाई जारी रखने की ज़रूरत इसलिए महसूस होती है क्योंकि "अब शादी नहीं हो रही, तो कुछ बन जाएं।" दूसरी ओर पढ़ाई के साथ अहम पैदा होता है कि पति पढ़ाई में बराबरी या उससे ऊपर का हो लेकिन दूसरी ओर लड़के के घर वाले अपनी हैसियत से ऊपर का परिवार ढूंढते हैं अपने लड़के की शादी के लिए। ऐसे में असंतुलन पैदा होता है और हमारे समाज की हज़ारों प्रतिभाशाली एवं संस्कारी लड़कियां कुंवारी बैठी रह जाती हैं।
यह भी देखा गया है कि आगे चलकर ऐसे लोगों के लिए आर्थिक संकट उत्पन्न हो जाता है। जिनके भाई या पिता नहीं होते, वे बेटियाँ खुद घर चलाती हैं, ट्यूशन पढ़ाती हैं या कोई नौकरी करती हैं। और कहीं कहीं यह भी होता है कि भाई शादी के बाद अलग हो जाते हैं और कुंवारी बहनें नौकरी कर खुद का गुज़ारा करने को विवश हो जाती हैं।
4. समाज की जिम्मेदारी क्या है?
समाज को निम्नलिखित कार्यों की ओर ध्यान देना चाहिए:
1. निकाह को आसान बनाना — दिखावे, दहेज और भारी खर्चों से बचना।
2. मजबूत नेटवर्किंग — मस्जिदों, मोहल्लों में "निकाह हेल्प डेस्क" बनाए जाएं।
3. पढ़ी-लिखी और कामकाजी लड़कियों को सम्मान देना — उन्हें 'जिम्मेदारी' नहीं, 'नेमत' समझा जाए।
4. शरीफ और समझदार लड़कों को तैयार करना — उन्हें यह सिखाया जाए कि बीवी का साथ देना मर्दानगी की निशानी है, न कि कमजोरी।
5. लड़कों की बचपन से ऐसी परवरिश हो कि वे लड़की चुनते समय उसकी शराफत, समझदारी और शिक्षा व संस्कार के आधार पर चयन करें ना कि केवल सुंदरता एवं पैसे के आधार पर लड़की पसंद की जाए।
समाज को समझना होगा कि हर वह लड़की जो अपने घर की ज़िम्मेदारी उठाती है, वह खुद एक समाज का निर्माण कर रही होती है। उसकी शादी की राह आसान बनाना हम सब की सामूहिक ज़िम्मेदारी हैं।
जब समाज की बेटियाँ समय पर निकाह से वंचित रह जाती हैं, तो इसका असर सिर्फ एक व्यक्ति पर नहीं, पूरे समाज पर होता है। हमें चाहिए कि हम न सिर्फ इनके लिए दुआ करें, बल्कि प्रयास भी करें। निकाह को आसान बनाएं, रिश्ता ढूंढने में मदद करें, और पढ़ी-लिखी लड़कियों को समझदार और शरीफ जीवनसाथी देने की कोशिश करें तभी जाकर हम एक संतुलित, नैतिक समाज बना सकते हैं।
नुज़हत सुहैल पाशा
स्वतंत्र लेखिका, छत्तीसगढ़