युद्ध किसी का भला नहीं करता: क्या वास्तव में युद्ध में कोई जीतता है?
डॉ. मुहम्मद इक़बाल सिद्दीक़ी
मरकज़ी सेक्रेट्री, जमाअत-ए-इस्लामी हिंद
जब भारत-पाकिस्तान सीमा पर तोपें गरजती हैं और युद्धोन्माद के बोझ तले धरती कांपने लगती है, जब दो देशों का राष्ट्रीय गौरव आक्रामक मुद्रा में खड़ा सशस्त्र संघर्ष की आवाज़ लगाता है तब वातावरण दुःख, भय और अनिश्चितता से भर जाता है। गोलीबारी केवल सीमा पर ही नहीं, बल्कि खेतों और गाँवों में भी ज़िंदगियां लील लेती हैं। जहाँ माताएँ अपने बच्चों को गोद में लिए बैठी होती हैं, किसान अपनी ज़मीन में हल चला रहे होते हैं, और स्कूली बच्चे एक उज्ज्वल भविष्य का सपना देख रहे होते हैं। ऐसे समय में, प्रोपेगंडे के धुंधलके को चीरती हुई सच्चाई सामने आने लगती है। जमाअत-ए-इस्लामी हिंद के अध्यक्ष सैयद सादतुल्लाह हुसैनी ने सही कहा, “युद्ध और संघर्ष किसी के हित में नहीं हैं।” उनके ये शब्द एक बयान मात्र नहीं, बल्कि 21वीं सदी में सशस्त्र संघर्ष के पागलपन को नकारने की नैतिक पुकार हैं।
भारतीय संदर्भ में, यह अपील अत्यंत आवश्यक हो जाती है। शांति का संरक्षण, भारत की बहुलतावादी भावना की रक्षा, और संवैधानिक मूल्यों की पवित्रता को सभी युद्धोन्मादी मुद्राओं से ऊपर रखा जाना चाहिए। ऐसे समय में जब विविधता में एकता हमारी सभ्यता की सबसे बड़ी ताकत है—धर्म, जाति या सांप्रदायिक आधार पर राष्ट्र को विभाजित करने का कोई भी प्रयास भारत की अवधारणा को नकारने के समान है।
संघर्ष की मानवीय क़ीमत: एक साझा त्रासदी
नियंत्रण रेखा के दोनों ओर, परिवार बंकरों में सोने पर मजबूर हैं, दोनों ओर गोलीबारी में बच्चे अनाथ होते हैं, और घर मलबे में तब्दील हो जाते हैं। जम्मू और कश्मीर के पुंछ में, सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य नरिंदर सिंह ने ऑपरेशन सिंदूर की शुरुआत में ही 13 भारतीय नागरिकों की मौत की सूचना दी थी। उन्होंने बताया कि बाजार बंद हो गए हैं, और सड़कों पर अजीब सी, डरावनी खामोशी छाई हुई है।
अब डर इन गाँवों का स्थायी निवासी हो गया है। 55 वर्षीय किसान मोहम्मद सुल्तान कहते हैं, “यह स्थान पहले काफी सुरक्षित था, परंतु इन हमलों ने बेहद डर पैदा कर दिया है।” उनके पड़ोसी, 65 वर्षीय शमशेर सिंह, के अनुसार, “हम आजकल सूर्यास्त से पहले ही खुद को घरों में बंद कर लेते हैं। हमने कभी इतना डर महसूस नहीं किया।” उनकी चिंता उन हजारों लोगों की चिंता है जो गोलीबारी के साये में जी रहे हैं।
लेकिन, त्रासदी किसी सीमा की पाबंद नहीं है। नियंत्रण रेखा के पार भी, सीमावर्ती गाँव बांदली में, आम नागरिक उसी डर का सामना कर रहे हैं—अस्पतालों में भीड़, बंद स्कूल, और अस्त-व्यस्त जीवन। बांदली निवासी तौक़ीर अहमद एक रात की निरंतर गोलाबारी को याद करते हुए हिंसा के ख़िलाफ़ अपनी बेबसी व्यक्त करते हैं।
लड़ाई में गंवाई गई हर एक जान—चाहे वह किसी भी धर्म, जाति या समुदाय से हो—अपने आप में पूरी इंसानियत है। युद्ध में मारे गए लोग सिर्फ आंकड़े नहीं, बल्कि बिखरे हुए सपनों, अधूरी कहानियों और असमाप्त संभावनाओं के प्रतीक हैं। यह त्रासदी केवल संवेदना व्यक्त करने से नहीं, बल्कि नैतिक दृढ़ता और राजनीतिक संकल्प से ही टल सकती है।
दोनों सरकारों को युद्ध की स्थिति में सीमावर्ती आबादी की रक्षा के लिए ठोस क़दम उठाने चाहिएं। अस्थायी आश्रयों का निर्माण, चिकित्सा सुविधा, मनोवैज्ञानिक सहायता, और विस्थापितों का पुनर्वास कोई अहसान नहीं—बल्कि न्याय की मांग है।
युद्ध: साझा उम्मीदों के साथ विश्वासघात
भारत और पाकिस्तान का विभाजन एक दर्दनाक घटना थी। पर आज भी दोनों साझा भाषाओं, संस्कृतियों, खान-पान और सपनों से जुड़े हुए हैं। दोनों ही देश ग़रीबी उन्मूलन, शिक्षा विस्तार, और हर नागरिक को गरिमा प्रदान करने की आकांक्षा रखते हैं। लेकिन युद्ध, संसाधनों को विकास से विनाश की ओर मोड़ देता है—स्कूल बैरकों में बदल जाते हैं और अस्पताल गोला-बारूद डिपो में।
10 मई, 2025 को, दोनों देशों के बीच अमरीकी मध्यस्थता से युद्धविराम पर सहमति हुई, लेकिन, कुछ ही घंटों में हुए उल्लंघनों ने इस युद्धविराम की कमज़ोरी को बयान कर दिया, और आइंदा जानों के नुक़सान को रोकने के लिए दोनों ओर से कूटनीतिक पहल की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित किया।
दो परमाणु सम्पन्न देशों के बीच संघर्ष न केवल यह कि बेहद ख़तरनाक है बल्कि पूरे इलाक़े के लिए विनाश का पैग़ाम है। इस युद्ध में किसी की जीत नहीं होगी, बल्कि आने वाली कई पीढ़ियों को भूख, विस्थापन, और आघात का सामना करना पड़ेगा। हाशिए पर रहने वाले—आदिवासी, अल्पसंख्यक, महिलाएं, और बच्चे—उन निर्णयों का ख़मियाज़ा भुगतेंगे जो आलीशान युद्ध कक्षों में लिए जाते हैं, जिनका उनकी रोज़मर्रा की वास्तविकताओं से कोई लेना देना नहीं है। हमारे देश के लिए अच्छी बात यह है कि, कुछ अपवादों को छोड़ कर अधिकांश राजनीतिक और सैन्य नेताओं ने सार्वजनिक बयानों में संयम से काम लिया है। लेकिन मात्र भाषणों से समस्या हल नहीं होती, विचारों की झलक नीतियों में दिखनी चाहिए। कूटनीति, बैकचैनल वार्ता, और लोगों के बीच संवाद कमज़ोरी नहीं, बल्कि परिपक्वता की निशानी है। शांति का अर्थ मात्र संघर्ष की अनुपस्थिति नहीं—बल्कि प्रतिशोध पर दूरदृष्टि की विजय है।
आतंकवाद: एक साझा दुश्मन
आतंकवाद भारत और पाकिस्तान दोनों के लिए समान रूप से एक अभिशाप है। पहलगाम हमला इसका भयानक उदाहरण है कि आतंक की कोई सीमा नहीं होती—यह अंधाधुंध मारता है और अराजकता, अज्ञानता, और ध्रुवीकरण की ख़ुराक़ पर पलता है।
दोनों देशों को बहस से आगे बढ़कर आंतकी गतिविधियों की जानकारी साझा करनी चाहिए और अलगाव, अन्याय, और बहिष्करण जैसे मूल कारणों को संबोधित करना चाहिए। आतंकवाद-रोधी उपाय कोई राजनीतिक उपकरण नहीं, बल्कि जीवन और सुरक्षा के अधिकार पर आधारित साझा कर्तव्य हैं।
इतिहास और मानवता से सीख: शांति के लिए नैतिक अनिवार्यता
इतिहास गवाह है कि युद्ध शायद ही कभी उन अंतर्निहित तनावों को हल करते हैं जिन्हें वे हल करने का दावा करते हैं। द्वितीय विश्व युद्ध की राख से लेकर वियतनाम और इराक़ के घावों तक, हमने देखा है कि सैन्य जीत मानवीय आपदाओं को जन्म देती है। सभ्यताएँ विजय से नहीं, बल्कि करुणा और सहयोग से फलती-फूलती हैं। मनुष्यों के रूप में, हमारे बीच सीमाओं से बढ़ कर और भी कई चीज़ें साझा हैं—एक ही ग्रह (धरती), एक ही सामूहिक भविष्य, और समान नैतिक ज़िम्मेदारी। अगला युद्ध शायद संस्मरण और पदक नहीं छोड़ेगा, बल्कि केवल खंडहर और पछतावा ही बाकी रहेगा। युद्ध की जगह शांति का चुनाव करने का समय कल नहीं—बल्कि आज और अभी है।
सह-अस्तित्व के लिए धर्म एक प्रेरणा
दुनिया के महान धर्म घृणा की शिक्षा नहीं देते; वे तो मनुष्यता की एकता के प्रेरक हैं। क़ुरआन हमें बताता है, “हमने तुम्हें क़ौमों और क़बीलों में इस लिए बांटा है ताकि तुम एक-दूसरे को पहचान सको” (49:13)—न कि तुम एक-दूसरे पर बड़ाई जताओ या एक-दूसरे का विनाश करो। सच्चा धर्म संप्रदायवाद से परे और न्याय पर आधारित होता है।
देश भर में, यह भावना राहत अभियानों में दिखाई पड़ती है जब हर धर्म के स्वयं सेवक धर्म से ऊपर उठ कर सभी पीड़ितों की समान रूप से सहायता करते हैं, यह अंतर-धार्मिक संगोष्ठियों में भी दिखाई देती है जिनके माध्यम से लोग एक दूसरे को जानते हैं, समझते हैं और यह समझ उन्हें ज़्यादा क़रीब लाती है। धर्म, जब ईमानदारी से समझा और अभ्यास किया जाता है, तो लोगों को बांटता नहीं—बल्कि उनमें एकता लाता है।
भारतीय नागरिकों के लिए आह्वान: देश की बहुलता की रक्षा करें
युद्ध के समय, पहला शिकार अक्सर सच्चाई होती है फिर हमारी एकता। 14 मई, 2025 को, भारत द्वारा एक पाकिस्तानी राजनयिक को 'पर्सोना नॉन ग्राटा' (अवांछित व्यक्ति) घोषित कर निष्कासित करने के बाद, पाकिस्तान की समान कार्रवाई ने हालिया युद्धविराम के बावजूद अविश्वास को गहरा किया है। यह घटनाक्रम एक चेतावनी है कि शांति प्रक्रिया कितनी नाज़ुक है, और हम कितनी आसानी से कूटनीति के पुलों को तोड़ सकते हैं।
अब भारत के नागरिकों पर यह ज़िम्मेदारी है कि वे भ्रामक सूचनाओं और भड़काऊ बयानों को नकारें। सोशल मीडिया के ज़रिए फैलाए जाने वाले घृणा अभियान और राष्ट्रवाद के नाम पर अल्पसंख्यकों को संदेह की दृष्टि से देखना, न केवल समाज को विभाजित करता है, बल्कि भारत के संविधान की आत्मा को भी नुक़सान पहुंचाता है।
भारत एक बहुलतावादी लोकतंत्र है, और यही उसकी ताक़त है। हमारा संविधान हर धर्म, हर भाषा, हर संस्कृति—यहां तक कि हर असहमति की आवाज़ को भी समान अधिकार देता है। यही वह भारतीयता है जिसे संरक्षित किया जाना चाहिए। हमें यह समझने की ज़रूरत है कि युद्ध से पहले नफ़रत आती है, और नफ़रत का पहला शिकार हमारा पड़ोसी, हमारा सहकर्मी, या हमारी गली का वह व्यक्ति होता है जिसकी प्रार्थना पद्धति हम से अलग है, जबकि उसके अंदर भी उसी इंसानियत की लौ जल रही होती है जो हमारे अंदर है।
मीडिया की भूमिका: आग बुझाने की या हवा देने की?
ऐसे समय में मीडिया की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। दुर्भाग्यवश, कई मुख्यधारा मीडिया संस्थानों ने तटस्थ पत्रकारिता की मर्यादा को छोड़कर सनसनी और राष्ट्रवादी उन्माद फैलाने को प्राथमिकता दी है। “चाहिए युद्ध!”, “सीधा हमला करो!”, “सर्जिकल स्ट्राइक 2.0” जैसी हेडलाइन्स TRP तो बढ़ा सकती हैं, परंतु शांति का कोई विकल्प नहीं दे सकतीं।
भारतीय मीडिया को आत्ममंथन करना चाहिए—क्या वह एक ज़िम्मेदार लोकतंत्र का स्तंभ बनेगा, या युद्धोन्माद फैलाने वाला एक औजार? क्या वह चाहता है कि नागरिक यह माँ लें कि गोलीबारी ही समाधान है, जबकि सच्चाई यह है कि एक सैनिक की वर्दी में लिपटा शव, उसके परिवार के लिए कभी जीत नहीं होती।
भारत-पाक संबंध: प्रतिस्पर्धा नहीं, साझेदारी
भारत और पाकिस्तान, दोनों देशों में युवा आबादी बहुसंख्यक है। उन्हें संघर्ष नहीं, अवसर की ज़रूरत है। उन्हें रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य और सम्मान चाहिए। दक्षिण एशिया को यूरोपीय संघ की तरह एक क्षेत्रीय सहयोग मॉडल बनाना चाहिए, जहाँ पुरानी दुश्मनियाँ सहयोग में बदल सकें। शत्रुता की जगह संवाद ले, संदेह की जगह भरोसा हो, और युद्ध की जगह साझा विकास का सपना हो। यह सिर्फ आदर्शवादी कल्पना नहीं, बल्कि नीति-निर्माताओं की नैतिक और राजनीतिक ज़िम्मेदारी है।
भू-राजनीतिक आयाम: वैश्विक शक्तियों का खेल और उनके रणनीतिक हित
पहलगाम हमले और उसके बाद भारत-पाकिस्तान के बीच बढ़े तनाव ने क्षेत्रीय और वैश्विक भू-राजनीति को और जटिल कर दिया है। इस तनाव में विभिन्न देशों ने भारत और पाकिस्तान का समर्थन किया है, लेकिन उनके समर्थन के पीछे कूटनीतिक, आर्थिक और सामरिक हित निहित हैं।
भारत और पाकिस्तान के साथ कौन-कौन से देश खड़े हैं और उनके हित क्या हैं?
पाकिस्तान का समर्थन:
चीन: पाकिस्तान को आर्थिक और सैन्य सहायता देता है, विशेष रूप से चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (CPEC) के माध्यम से। हित: भारत को दक्षिण एशिया में संतुलित करना, ग्वादर बंदरगाह के ज़रिए अरब सागर में सामरिक पहुँच, और वैश्विक मंचों पर पाकिस्तान के पक्ष को मज़बूत करना।
तुर्की और मलेशिया: कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान का कूटनीतिक समर्थन। तुर्की भारत के प्रभाव, जैसे IMEC, को चुनौती देता है और रक्षा-व्यापार में सहयोग चाहता है। मलेशिया की नज़र में इस्लामी एकजुटता और क्षेत्रीय स्थिरता है। हित: OIC के माध्यम से भारत पर दबाव बनाना।
भारत का समर्थन:
अमेरिका: भारत को इंडो-पैसिफिक रणनीति में साझेदार मानता है। हित: चीन के प्रभाव को कम करना, रक्षा सहयोग (क्वाड), और क्षेत्रीय स्थिरता।
इज़रायल: रक्षा प्रौद्योगिकी और ख़ुफ़िया सहयोग प्रदान करता है। हित: भारत के साथ सामरिक साझेदारी और आतंकवाद-विरोधी एकजुटता।
फ्रांस: रक्षा (राफेल) और आर्थिक सहयोग। हित: भारत को क्षेत्रीय शक्ति के रूप में समर्थन और दक्षिण एशिया में प्रभाव।
अफ़ग़ानिस्तान: पहलगाम हमले के बाद भारत का समर्थन। हित: पाकिस्तान-समर्थित आतंकवादी समूहों (पाकिस्तानी तालिबान) के ख़िलाफ़ सहयोग।
तटस्थ देश:
रूस: भारत के साथ ऐतिहासिक संबंध, लेकिन पाकिस्तान के साथ भी सहयोग। हित: दोनों देशों के साथ संबंध बनाए रखना और क्षेत्र में मध्यस्थता।
सऊदी अरब, UAE, कतर: तटस्थ रुख, लेकिन सऊदी और UAE का भारत के साथ आर्थिक (ऊर्जा, व्यापार) और पाकिस्तान के साथ ऐतिहासिक संबंध। हित: क्षेत्रीय स्थिरता और व्यापार मार्गों की सुरक्षा। कतर मध्यस्थता की कोशिश करता है।
ईरान: तटस्थ, लेकिन पाकिस्तान की ओर झुकाव। हित: भारत के साथ चाबहार बंदरगाह सहयोग और पाकिस्तान के साथ सांस्कृतिक निकटता के बीच संतुलन।
सीज़फायर में अमेरिका की भूमिका और उसके हित
10 मई, 2025 को अमेरिका की मध्यस्थता से हुए युद्धविराम के ज़रिए भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव को कम करने की कोशिश की गई, लेकिन इसके उल्लंघनों ने इसकी नज़ाकत को उजागर कर दिया। अमेरिका ने दोनों देशों से संयम बरतने और नियंत्रण रेखा (LOC) पर शांति बनाए रखने की अपील की। अमेरिका का रुख़ भारत के प्रति अधिक सहानुभूतिपूर्ण रहा, क्योंकि वह भारत को क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण रणनीतिक साझेदार मानता है। अमेरिका का हित दक्षिण एशिया में स्थिरता सुनिश्चित करना, चीन के प्रभाव को कम करना, और परमाणु-सशस्त्र देशों के बीच युद्ध को रोकना है।
भविष्य के संकेत क्या हैं?
पहलगाम हमले और हालिया राजनयिक तनावों, जैसे 14 मई, 2025 को दोनों देशों द्वारा एक-दूसरे के राजनयिकों को निष्कासित करने, ने भारत-पाकिस्तान के बीच अविश्वास को और गहरा किया है। यदि कूटनीतिक प्रयासों को प्राथमिकता नहीं दी गई, तो नियंत्रण रेखा पर और टकराव की आशंका है। वैश्विक शक्तियों का ध्रुवीकरण—चीन, तुर्की, और कुछ मुस्लिम देशों का पाकिस्तान के साथ, और अमेरिका, इज़रायल, और फ्रांस का भारत के साथ—क्षेत्रीय स्थिरता को ख़तरे में डाल सकता है। इन देशों के रणनीतिक हित, जैसे क्षेत्रीय प्रभाव, आर्थिक लाभ, और सैन्य सहयोग, इस तनाव को और जटिल बनाते हैं। शांति के लिए भारत और पाकिस्तान के बीच प्रत्यक्ष संवाद, क्षेत्रीय सहयोग, और दोनों देशों के भीतर सामाजिक सौहार्द को बढ़ावा देना आवश्यक है।
निष्कर्ष: अगर शांति नहीं, तो फिर क्या?
“अगर आप शांति नहीं चाहते, तो आप क्या चाहते?” यह सवाल सिर्फ सरकारों से नहीं, हम सब से है। क्योंकि हर नागरिक, हर संगठन, हर शब्द जो हम लिखते हैं या बोलते हैं—वह या तो आग में ईंधन डालता है, या शांति की लौ को प्रज्वलित करता है।
भारत को यह तय करना होगा कि वह इतिहास में एक समझदार, न्यायप्रिय राष्ट्र के रूप में याद किया जाएगा या एक ऐसा राष्ट्र जो बारूद की भाषा में बात करता है। हमें वह भारत चुनना है जिसकी पहचान उसकी बहुलता, सहिष्णुता और मानवीय मूल्यों से हो—सैन्य शक्ति से नहीं बल्कि नैतिकता और दूरदर्शिता से हो।
युद्ध नहीं, शांति चाहिए।
आज यही हमारा नारा, हमारी नैतिक ज़रूरत, और हमारा राष्ट्रीय धर्म होना चाहिए।
स्रोत:
• द गार्जियन (25 अप्रैल 2025)
• रायटर्स (28 अप्रैल 2025)
• एमनेस्टी इंटरनेशनल (8 मई 2025)
• एनपीआर नेटवर्क (8 मई 2025)
• एपी न्यूज़ (9 मई 2025)
• इंडिया टुमॉरो (9 मई 2025)
• अलजज़ीरा (9 मई 2025)
• न्यू यॉर्क टाइम्स (9 मई 2025)
• रायटर्स (9 मई 2025)