‘माहवारी कोई श्राप या अप्राकृतिक चीज़ नहीं है जिस पर शर्म की जाए’

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By Aabha admin June 01, 2025

2011 की जनसंख्या के अनुसार भारत में महिलाओं की आबादी लगभग 49 प्रतिशत के आसपसास है। अर्थात इस देश की आधी आबादी महिलाओं की है। इसके बावजूद हमारे देश में माहवारी पर बोलना, चर्चा करना आज भी शर्म की बात माना जाता है। जबकि अनेकों जागरुकता कार्यक्रम, अभियान इत्यादि सरकार व निजी सामाजिक संस्थाओं की ओर से चल चुके हैं। माहवारी की मूल समस्या और गरीब वर्ग में जागरुकता की कमी आदि मुद्दों पर आभा संपादकीय बोर्ड सदस्य तूबा हयात खान ने बात की दिल्ली की स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉक्टर हमराह सिद्दीकी से। डॉक्टर हमराह इलाहाबाद विश्विद्यालय से पढ़ी हैं और 35 वर्ष से प्रैक्टिस कर रही हैं। उन्होंने मलिन बस्तियों में माहवारी के प्रति जागरुकता फैलाने का भी काम किया है। पेश है उनसे बातचीत के कुछ अंशः-

सवाल: भारतीय समाज में मासिक धर्म से संबंधित सबसे प्राथमिक और मूल समस्या क्या है?

जवाब: समस्याएं तो बहुत सी हैं, विशेषकर ग़रीब परिवारों में। लेकिन मूल समस्या इस विषय पर बात ना होना है। आज भी लोग मासिक धर्म को लेकर लज्जा और शर्म के कारण घर वालों को बताते नहीं हैं कि यह क्या होता है। अधिकांश यह देखा गया है कि किसी लड़की के पहली बार पीरियड्स आते हैं तो उसे मालूम भी नहीं होता कि यह क्या हो गया? हालांकि वह एक गर्ल्स स्कूल में, सभी लड़कियों के ही बीच पढ़ रही होती है, स्टाफ़ में भी सभी महिला शिक्षिकाएं होती हैं, लेकिन जब ऐसा होता है तो उसे बताने के बजाए आस पास लड़कियाँ हँसी उड़ा रही होती हैं। उस लड़की को पहले से न उसकी माँ से पहले से कुछ समझाया होता है बड़ी नानी दादी ने।

समय के साथ कुछ परिवर्तन और जागरूकता तो आई है लेकिन माहवारी को एक ऐसी बात समझना जिसे  घर के पुरुषों से भी छिपाया जाए, ये बड़ी समस्या है। अशिक्षित, ग़रीब और वंचित वर्गों के साथ साथ अधिकांश शिक्षित और विकसित वर्ग में भी घर के पुरुषों से इस संबंध में बहुत कुछ छिपाया जाता है।

सवाल: ग़रीब परिवारों में महिलाओ को मासिक धर्म के दौरान किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है?

जवाब: मेडिकल कॉलेज और फिर प्रैक्टिस के दौरान बहुत सी ऐसी महिलाओं से मेरा सामना हुआ है जिनकी आर्थिक स्थिति तो यह थी कि हर महीने सैनिटरी नैपकिंस (पैड्स) खरीदने के पैसे कहां से लाएं? फिर यह कि घर के पुरुषों को अपने पीरियड्स के बारे में बताना नहीं है तो किस चीज़ के लिए ये पैसे लग रहे हैं वो कैसे बताएं?

ऐसे में अधिकांश महिलाएं इस माहवारी में कपड़े का उपयोग करती हैं, बहुत सी महिलाओं के लिए तो हर महीने के लिए इतने सारे पुराने कपड़ों का प्रबंध करना भी मुश्किल होता है। ऐसी स्थिति में उन कपड़ों को बार बार धो कर  और सुखा कर इस्तेमाल किया जाता है। चूंकि घर में सभी से छिपाने और शर्म की बात मानी जाती है तो उन कपड़ों को कहीं छिपा कर सुखाना भी महिलाओं के लिए मुश्किल होता है।

गाँव में बहुत से मिथक गढ़ लिए गए है, जैसे उन कपड़ों को फेंकना नहीं है बल्कि बार बार उपयोग करना है तो बहुत से लोग कहते हैं कि "अगर उस कपड़े पर हमारे  नाग देवता चढ़ जाएंगे तो पाप लगेगा।"

जागरूकता, शिक्षा और पैसों के अभाव के कारण कई बार ये जानने में आया है कि जो बड़ी उम्र की महिलाएं होती हैं वे कई बार कुछ अनाज जैसे चना या राख आदि की पोटली सी बना कर गुप्तांग में डाल लिया करती हैं जो कि सब कुछ सोख ले। ऐसे बहुत से कारणों से महिलाओं में संक्रमण और बांझपन की समस्या बढ़ जाती है।

सवाल: आर्थिक उत्थान के अलावा और क्या कारक हैं जो इन समस्याओं का निदान कर सकते हैं?

जवाब: सबसे पहले तो परिवार के सदस्यों के बीच स्वस्थ वार्तालाप और आपसी समझ बहुत आवश्यक है, महिलाएं भी इस संबंध में घर की बच्चियों को पहले से समझाएं, इस समय में महिलाओं को होने वाली परेशानियों में उनका ख़्याल रखने के बारे में सहज तरीक़े से पुरुषों को भी बताया जाए।

माहवारी कोई श्राप या अप्राकृतिक चीज़ नहीं है जिसके बारे में शर्म की जाए या घर वालों से छिपाया जाए। सरकार की ओर से भी बहुत से जागरूकता अभियान चलाए जाते हैं, उनसे जुड़ने और योजनाओं के तहत सैनिटरी पैड्स आदि के वितरण का लाभ लोगों को मिल सकता हैं।

इन्टरनेट और सोशल मीडिया के दौर में लोगों में जागरूकता अब कोई मुश्किल काम नहीं है। लेकिन समाज में फैली रूढ़ियों और मिथकों से लोगों को ऊपर उठाना होगा , तभी मासिक धर्म में महिलाओं को सहजता होगी।

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