डॉक्टर फरहत हुसैन
रिटायर्ड प्रोफेसर, रामनगर,उत्तराखंड
संयुक्त राज्य अमेरिका में रंग एवं नस्ल की समस्या से जूझते हुए अफ़रीक़ी मूल के एक बड़े लीडर मैल्कम एक्स (Malcolm X) ने जब इस्लामी शिक्षाओं में मानव समानता के सिद्धांत का अध्ययन किया और अपने संपर्क में आए मुसलमानों के व्यवहार को परख़ा तो उनका हृदय परिवर्तन हो गया और उन्होंने इस्लाम धर्म अपना लिया। सन 1964 में जब वह हज की तीर्थ यात्रा पर गए तो पुकार उठे कि यह है वास्तविक मानव समानता तथा विश्व बंधुत्व। हज यात्रा के उनके संस्मरणों में उन्होंने स्वीकार किया है कि रंग और नस्ल के भेदभाव तथा सामाजिक असमानता का एक मात्र समाधान इस्लाम में है जिसका प्रत्यक्ष एवं व्यवहारिक रुप हज यात्रा में मिलता है। मैल्कम एक्स (जो बाद में मलिक अल शाबाज़ के नाम से जाने गए) अपने एक पत्र में लिखते हैः-
“मैंने कहीं और, सभी रंगों और जातियों के लोगों द्वारा की गई ऐसी ईमानदार मेहमान नवाज़ी और सच्चे भाईचारे की ज़बरदस्त भावना को नहीं देखा जो मुझे हज़रत इब्राहिम अलै० और पैगंबर मुहम्मद स०अ०व० की इस पवित्र भूमि (अर्थात मक्का, मदीना आदि) में देखने को मिली।”
“(हज में) हम सभी वास्तव में एक जैसै थे क्योंकि एक ईश्वर में उनकी आस्था ने उनके दिमाग से ‘श्वेत’ (Whites) उनके व्यवहार से ‘श्वेत’ और उनके दृष्टिकोण से ‘श्वेत’ (अर्थात नस्लीय घमंड) को हटा दिया था।”
(Malcolm X, letter from Mecca April 20, 1964)
एक अन्य स्थान पर वह लिखते हैः-
“(हज के अवसर पर) सभी रंगों के मुसलमानों को नीली आंखों वाले गोरे लोगों से लेकर काली त्वचा वाले अफ़रीक़ियों तक समान रुप से मिलते और बात करते देखकर मैंने इस्लाम को एक ऐसे साधन के रुप में पाया जिसके द्वारा रंग एवं नस्ल के भेदभाव की समस्या पर काबू पाया जा सकता है।”
(Peru P.155)
समस्या जटिल है
सामाजिक अन्याय और इंसानों के बीच जाति, धर्म, क्षेत्र और भाषा के आधार पर भेदभाव प्राचीन युग से आज तक चला आ रहा है। यह भेदभाव आगे बढ़कर द्वेष, घृणा, दुश्मनी, अपमान, ज़ुल्म-ज़्यादती, अत्याचार और मानवाधिकार-हनन तक पहुंच जाता है। निहित स्वार्थों के चलते भेदभावपूर्ण व्यवस्था के पक्ष में दलीलें इकट्ठा की गईं, नियम कानून और सिद्धांत बनाए गए, यहां तक कि इस भेदभावपूर्ण नीति को धार्मिक मान्यता प्रदान की गई। कई क़ौमों और देशों ने इसे अपनी स्थाई नीति बनाकर कार्य किए।
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार घोषणापत्र
समस्या के समाधान के लिए कुछ प्रयास भी किए जाते रहे हैं। आधुनिक युग में भेदभाव पूर्ण नीति को समाप्त करने और मानवाधिकार संरक्षण के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने 10 दिसंबर 1948 को ‘मानवाधिकारों का वैश्विक घोषणा-पत्र’ (Universal Declaration of Human Rights) स्वीकार किया, जो वास्तव में एक सराहनीय कार्य है। इस घोषणा-पत्र में मानवाधिकारों का सम्मान करने, जाति, लिंग भाषा तथा धर्म के आधार पर भेदभाव किए बिना सभी इंसानों को बुनियादी स्वतंत्रता दिलवाने की बात कही गई है। इस पूरे घोषणा-पत्र पर किसी सदस्य देश ने आपत्ति नहीं की और आपत्तिजनक कोई बात इसमें है भी नहीं। सभी घोषणाएं मानवाधिकारों को बढ़ावा देने वाली हैं। परंतु समस्या यह है कि मानवाधिकारों को लागू कौन करेगा? जो देश या समुदाय इनका हनन करे या घोषणाओं के विपरीत कार्य करे, उनके विरुद्ध कार्यवाही करने का अधिकार किसके पास होगा? यदि यह अधिकार (Authority) किसी के पास नहीं है तो फिर ये घोषणाएं ‘सुंदर इच्छाओं’ से अधिक कुछ नहीं।
इस्लाम द्वारा प्रस्तुत समाधान
इस पृष्ठभूमि में समस्या के समग्र व्यवहारिक एवं संतुलित समाधान में इस्लामी शिक्षाओं का निष्पक्ष अध्ययन आश्चर्यचकित कर देता है। आज से 1450 वर्ष पूर्व पवित्र कुरआन ने मानव एकता, इंसानी बराबरी और भेदभाव रहित समाज की जो शिक्षाएं प्रस्तुत की हैं, वे क्रान्तिकारी भी हैं और मानव स्वभाव के अनुरुप भी। फिर महाईशदूत हज़रत मुहम्मद सल्ल० ने उन सिद्धांतों की व्याख्या की और स्वयं आगे बढ़कर समानता और बराबरी का अभूतपूर्व नमूना पेश किया। जब हम उनके अंतिम हज संबोधन को पढ़ते हैं तो पता चलता है कि यह संबोधन मानवाधिकार का सबसे बड़ा घोषणा-पत्र है। वर्गविहीन समाज की यह अवधारणा संयुक्त राष्ट्र के 1948 के घोषणा-पत्र से बहुत पहले की है जिसे लोगों की आस्था से जोड़कर उसके पालन को धार्मिक-स्तर पर अनिवार्य बना दिया गया। फिर इस समता, समानता और बराबरी को स्वयं हज़रत मुहम्मद सल्ल० ने समाज में लागू किया और उनके उत्तराधिकारियों ने भी इसे जारी रखा जिसका विवरण इतिहास में प्रमाणिक रुप से दर्ज है।
इस्लामी शिक्षाएं
सामाजिक न्याय तथा समता-समानता संबंधी इस्लामी शिक्षाओं को यहां संक्षेप में प्रस्तुत किया जा रहा है।
सभी इंसान एक जोड़े की संतान हैः
पवित्र कुरआन में अनेक स्थानों पर इस तथ्य का उल्लेख किया गया है। सबसे महत्वपूर्ण अंश इस प्रकार है-
“ऐ लोगो! हमने तुम्हें एक पुरुष और एक स्त्री से पैदा किया और तुम्हें बिरादरियों और कबीलों का रुप दिया ताकि तुम एक-दूसरे को पहचानो। वास्तव में अल्लाह के यहां सबसे अधिक प्रतिष्ठित वह है जो तुममें सबसे अधिक ईशभय रखता है।”
(कुरआन, 49:13)
कुरआन के इस अंश में मानवजाति को प्रत्यक्ष रुप से संबोधित करके उस बड़ी बुराई को समाप्त किया गया है जो सदैव विश्वव्यापी बिगाड़ के मूल में रही है अर्थात रुप-रंग, जाति-भाषा और कौम का भेदभाव।
सभी इंसानों की उत्त्पत्ति एक ही प्रकार से की गई
इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार सभी इंसानों के पैदा होने की प्रक्रिया तथा मूल तत्व एक समान है।
“हमने तुम्हें पैदा करने का निश्चय किया, फिर तुम्हारा रुप बनाया, फिर हमने फरिश्तों से कहा कि आदम के आगे झुक जाओ।”
(कुरआन 7:11)
“वही है जिसने पैदा किया, तुम्हें मिट्टी से फिर वीर्य से फिर रक्त के लोथड़े से फिर वह तुम्हें बच्चे के रुप में निकालता है।”
(कुरआन 40:67)
“अल्लाह ने तुम्हें मिट्टी से पैदा किया, फिर वीर्य से, फिर तुम्हें जोड़े-जोड़े बनाया।”
(कुरआन 35:11)
सभी इंसान ईश्वर की उत्तम रचना हैं
“निःसंदेह हमने मनुष्य को सर्वोत्तम संरचना के साथ पैदा किया।”
(कुरआन 95:4)
“हे मनुष्य! किस चीज़ ने तुझे अपने प्रभु के विषय में धोखे में डाल रखा है। जिसने तेरा रुप बनाया फिर नख-शिख से दुरुस्त किया और तुझे संतुलन प्रदान किया।”
(कुरआन 82:6-7)
“वह अल्लाह ही तो है जिसने तुम्हारे लिए धरती को ठहरने का स्थान बनाया और आकाश को एक छत के समान बनाया और तुम्हारी शक्ल व सूरत बनाई और बहुत अच्छी बनाई।”
(कुरआन 40:64)
इंसान को ईश्वर ने ससम्मान धरती पर बसाया
“हमने आदम की संतान को श्रेष्ठता प्रदान की और उन्हें थल और जल में सवारी दी और अच्छी शुद्ध चीज़ों की उन्हें रोज़ी दी और अपने पैदा किए बहुत से प्राणियों की अपेक्षा उन्हें श्रेष्ठता प्रदान की।”
(कुरआन 17:70)
हज़रत मुहम्मद सल्ल० की शिक्षाएं
हज़रत मुहम्मद सल्ल० का संपूर्ण जीवन भेदभाव को समाप्त करने के लिए समर्पित था जिसके उदाहरण इतिहास के पन्नों में देख जा सकते हैं। यहां सामाजिक न्याय से संबंधति उनकी कुछ महत्वपूर्ण शिक्षाओं को यहां उल्लिखित किया जा रहा हैः-
अतिंम हज के भाषण के उद्धरणः
“लोगो मेरी बात ध्यान से सुनो, हो सकता है इस वर्ष के बाद इस स्थान पर मैं तुमसे कभी न मिल सकूं। अज्ञानकाल की समस्त रीतियां मेरे पैर के नीचे हैं। तुम सबका प्रभु एक है और बाप भी एक है। किसी अरबवाले को किसी गैर-अरब पर बड़ाई नहीं, न किसी गोरे को किसी काले पर, हां बड़ाई तो केवल ईशभय के आधार पर है।”
(बैहक़ी)
मक्का विजय के अवसर पर फ़रमायाः
“शुक्र है उस प्रभु का जिसने तुम्हें अज्ञानकाल के घमण्ड से दूर कर दिया। सारे मनुष्य मात्र दो भागों में विभाजित होते हैं- एक सदाचारी व संयमी जो अल्लाह की दृष्टि से सम्मान वाले हैं, दूसरे दुराचारी और दुष्ट जो अल्लाह की नज़र में अपमानित और तुच्छ हैं। सारे इंसान आदम की संतान हैं और आदम को मिट्टी से पैदा किया था।”
(बैहक़ी)
“अल्लाह प्रलय के दिन तुम्हारा गौत्र या वंश नहीं पूछेगा, अल्लाह के यहां सम्मानवाला वह है जो सबसे अधिक ईशभय रखता है।”
(इब्ने-जरीर)
“अल्लाह तुम्हारी सूरतें और तुम्हारी दौलत नहीं देखता, वह तो तुम्हारे मन और कर्म देखता है।”
(मुस्लिम)
अंत मेः-
इस्लामी इबादतें विशेषकर नमाज़ तथा हज सामाजिक समानता एवं भाईचारे को मज़बूत करने का माध्यम हैं। मस्जिद में सभी उपस्थित लोग जब कंधे से कंधा मिलाकर पंक्तिबद्ध होकर अल्लाह की उपासना करते हैं तो अध्यात्मिक विकास के साथ-साथ आपसी भाईचारा परवान चढ़ता है। हज के लिए पूरी दुनिया के मुसलमान एक ही समय में मक्का नगर में एकत्रित होते हैं और हर पुरुष तीर्थ यात्री (हाजी) एक ही लिबास में दो सफेद चादरों को धारण किए हुए होता है। काले-गोरे, अमेरिकी-अफ़्रीक़ी, हिंदी-चीनी, राजा-प्रजा सब एक ही वेशभूषा में परिक्रमा करते हुए, नमाज़ पढ़ते हुए तथा ईश्वर का गुणगान करते हुए नज़र आते हैं। विश्व बंधुत्व तथा समानता का यह व्यवहारिक उदाहण भी है और उसके लिए प्रशिक्षण भी है।