1.महत्वपूर्ण शब्दावलियां
लेख में प्रयुक्त महत्वपूर्ण शब्दावलियों का वर्णन पाठको की सुविधा की दृष्टि पूर्व में ही किया जा रहा हैं।
टैरिफ या प्रशुल्क
टैरिफ वस्तुओं पर लगाया गया एक कर है जब वे राष्ट्रीय सीमा में प्रवेश करती है और उसे छोड़ती है। सामान्य अर्थों में "आयात और निर्यात पर लगाए जाने वाले शुल्क को टैरिफ कहा जाता है।" परंतु व्यावहारिक उद्देश्य के लिए, एक टैरिफ आयात शुल्क या सीमा शुल्क का पर्यायवाची है।
टैरिफ के कई प्रकार होते हैं जैसे मूल्यानुसार टैरिफ, विशेष टैरिफ, एक कॉलम टैरिफ, दोहरे कॉलम टैरिफ, बहु कॉलम टैरिफ, पारस्परिक टैरिफ(reciporical tarrif), प्रतिशोधात्मक टैरिफ(retaliatory tarrif ) व प्रतिकार टैरिफ(countervailing duty) आदि। यहां सुविधा की दृष्टि से केवल दो प्रकार के टैरिफ को परिभाषित किया गया हैं।
पारस्परिक टैरिफ (Reciprocal Tariff)
एक ऐसा व्यापारिक समझौता जिसमें दो देश एक दूसरे की वस्तुओं/सेवाओं पर आयात शुल्क (Import duties) को समान या तुलनात्मक स्तर पर रखते हैं। हाल ही में अमेरिका द्वारा लगाया गया टैरिफ इसी प्रकार का टैरिफ हैं।
प्रतिशोधात्मक टैरिफ (Retaliatory Tarrif)
प्रतिशोधात्मक टैरिफ एक देश द्वारा दूसरे देश के आयात पर उसकी व्यापार नीति के लिए उसे दंड देने हेतु लगाया जाता है जो उसके निर्यातों को या व्यापार शेष को हानि पहुंचाते हैं। अमेरिकी टैरिफ नीति के विरोध में अन्य देशों द्वारा लगाए गए टैरिफ इसी प्रकार के टैरिफ हैं।
व्यापार संतुलन (Balance of Trade)
किसी देश का व्यापार शेष निर्यातित और आयातित वस्तुओं/सेवाओं के मूल्य का अंतर होता है।(व्यापार शेष= निर्यात–आयात)
X>M व्यापार अधिशेष(Trade Surplus)
X<M व्यापार घाटा(Trade Deficit)
X=M व्यापार शेष संतुलन में है।
मुक्त व्यापार (Free Trade)
प्रोफेसर जी लिप्सी (Prof. G Lipsey) कहते है कि "मुक्त व्यापार जगत वह होगा जिसमें आयात अथवा निर्यात करने पर कोई टैरिफ और किसी भी प्रकार के प्रतिबंध नहीं होंगे। इस प्रकार के संसार में कोई देश उन सब वस्तुओं को आयात करेगा जिन्हें वह उनकी घरेलू उत्पादन लागत से कम कीमत पर प्राप्त कर सकें।"
संरक्षणवाद (Protectionism)
"संरक्षणवाद" शब्द उस नीति की ओर संकेत करता है जिसके द्वारा घरेलू उद्योगों को विदेशों की प्रतियोगिता से बचाया जाता है। इसका उद्देश्य यह है कि कम कीमत की वस्तुओं के आयात पर प्रतिबंध लगाए जाएं ताकि ऊंची कीमत की वस्तुओं का उत्पादन करने वाले घरेलू उद्योगों को बचाया जा सके साथ में राष्ट्रीय सुरक्षा को भी सुनिश्चित किया जा सकें।
2.अमेरिकी टैरिफ का इतिहास
टैरिफ कोई नई बात नहीं है। 18वीं सदी से ही ये अमेरिकी आर्थिक नीति का हिस्सा रहे हैं। लेकिन जब भी अमेरिका टैरिफ लगाता है या बढ़ाता है, तो इससे सिर्फ़ कीमतों में बढ़ोतरी नहीं होती। टैरिफ व्यापार प्रवाह, निवेशकों की भावना और वैश्विक अर्थव्यवस्था की नींव को हिला देते हैं। आज विश्व भले ही अमेरिका-चीन व्यापार संबंधों को लेकर चिंता में हो, लेकिन यह पहली बार नहीं है जब अमेरिका के टैरिफ ने अपनी सीमाओं से कहीं आगे तक प्रभाव डाला है।
क्यों न धुंधले अतीत में वापस जाएं और अमेरिकी टैरिफ के इतिहास में प्रमुख मील के पत्थरों का पता लगाएं, और देखें कि उन्होंने वैश्विक अर्थव्यवस्था को कैसे प्रभावित किया है। क्योंकि अतीत से हमें भविष्य की ओर देखने के लिए अमूल्य सबक मिल सकते हैं।
19वीं शताब्दी: राजस्व के स्रोत के रूप में टैरिफ
19वीं सदी में टैरिफ का इस्तेमाल व्यापार युद्ध लड़ने के लिए हथियार के तौर पर नहीं किया जाता था। इनका इस्तेमाल संघीय सरकार को फंड देने के लिए किया जाता था। आयकर न होने की वजह से सीमा शुल्क राजस्व का एक बड़ा स्रोत था। जॉर्ज वॉशिंगटन द्वारा हस्ताक्षरित 1789 का टैरिफ अधिनियम अमेरिका की पहली आधिकारिक टैरिफ नीति थी। इसने एक साथ दो उद्देश्य पूरे किए: राजस्व बढ़ाना और अमेरिकी उद्योगों की रक्षा करना।
1820 के दशक तक, उद्योग प्रधान उत्तरी अमेरिका और कृषि प्रधान दक्षिण अमेरिका के बीच तनाव ने टैरिफ नीति को विवाद का विषय बना दिया। टैरिफ ऑफ एबोमिनेशन (1828) ने शुल्कों को लगभग 50% तक बढ़ा दिया, जिससे एक संकट पैदा हो गया, जिसके कारण दक्षिण कैरोलिना राज्य लगभग अलग हो गया (संघ से अलग हो गया)। हालाँकि इस मुद्दे को अंततः सुलझा लिया गया, लेकिन इसने इस मुद्दे पर प्रकाश डाला कि कैसे टैरिफ आर्थिक संतुलन को बाधित कर सकते हैं और यहाँ तक कि घरेलू विभाजन का कारण भी बन सकते हैं।
अंतरयुद्ध वर्ष: एक चेतावनी भरी कहानी
चलिए एक सदी आगे बढ़ते हैं। 1930 के दशक की महामंदी अभी शुरू ही हुई थी, और नीति निर्माता अमेरिकी नौकरियों और उद्योग की रक्षा के लिए भागदौड़ कर रहे थे। 1930 का स्मूट-हॉले टैरिफ अधिनियम लागू किया गया, जिसने 20,000 से अधिक आयातित वस्तुओं पर शुल्क बढ़ा दिया। प्रतिशोध में कनाडा, यूरोपीय देशों और अन्य देशों ने अपने टैरिफ बढ़ा दिए, जिसके बाद 1929 से 1934 तक 5 साल की अवधि में वैश्विक व्यापार की मात्रा में लगभग 66% की गिरावट आई। हालाँकि अतिरिक्त टैरिफ महामंदी का कारण नहीं था, लेकिन इसने खराब स्थिति को और भी बदतर बना दिया। यूरोप से लेकर एशिया तक निर्यात-संचालित अर्थव्यवस्थाएँ तेज़ी से सिकुड़ गईं और बेरोज़गारी में तेज़ी से वृद्धि हुई। यह प्रकरण इस बात के सबसे अधिक उद्धृत उदाहरणों में से एक है कि संरक्षणवाद किस तरह से उलटा पड़ सकता है।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद: पटकथा में बदलाव
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पटकथा में बदलाव हुआ और अमेरिका ने अपनी रणनीति बदल दी। यह एक बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली का निर्माता बन गया। GATT और WTO जैसी संस्थाओं का उदय हुआ जिनका उद्देश्य वैश्विक स्तर पर टैरिफ को कम करना और व्यापार उदारीकरण को बढ़ावा देना हैं।
1940 के दशक के अंत से लेकर 2000 के दशक की शुरुआत तक की अवधि के दौरान, औसत अमेरिकी टैरिफ दरें लगातार गिरती रहीं। वैश्विक व्यापार फला-फूला और देश आपूर्ति श्रृंखलाओं में एकीकृत हुए, वैश्विक जीडीपी में वृद्धि हुई और उभरते बाजारों को वैश्विक बाज़ार में पैर जमाने का अवसर मिला। मोटे तौर पर, मुख्यधारा की आर्थिक नीति में टैरिफ कम दिखाई देने लगे थे।
2010 के दशक का अंत: टैरिफ की वापसी
2010 के दशक का अंत हुआ और अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध (2018-2020) के साथ टैरिफ की वापसी हुई , जब स्टील और सोलर पैनल से लेकर वॉशिंग मशीन तक के 360 बिलियन डॉलर से अधिक मूल्य के चीनी उत्पादों पर टैरिफ लगाया गया। चीन ने, जैसा कि 2025 में फिर से किया, अपने टैरिफ के साथ जवाब दिया। और वैश्विक प्रभाव बहुत स्पष्ट थे। आपूर्ति श्रृंखला प्रभावित हुई, उभरते बाजारों ने दबाव महसूस किया, कमोडिटी बाजारों में व्यापार से संबंधित सुर्खियों के साथ बेतहाशा उतार-चढ़ाव आया और वैश्विक विकास पूर्वानुमानों में कटौती की गई।
समकालीन अध्ययनों से मालूम होता कि कुछ घरेलू उद्योगों को अस्थायी संरक्षण मिला, उपभोक्ताओं को लागत वृद्धि का अंतिम बोझ महसूस हुआ। शासन बदलने के बाद टैरिफ में कोई सार्थक कमी नहीं आई, जिससे हमें यह अमूल्य संकेत मिला कि टैरिफ को अब सिर्फ़ आर्थिक नीति के बजाय रणनीतिक प्रतिस्पर्धा के साधन के रूप में देखा जा सकता है।
वैश्विक प्रभाव
टैरिफ़ मूल्य संकेतों को बदलते हैं, मध्यस्थता के अवसर पैदा करते हैं, और सबसे महत्वपूर्ण बात, प्रतिशोध को आमंत्रित करते हैं। और इस क्रॉसफ़ायर में फंसे देश वे थे जो वैश्विक व्यापार पर बहुत अधिक निर्भर थे। उदाहरण के लिए, निर्यात पर निर्भर जर्मन ऑटोमेकर्स को अमेरिका-चीन विवाद के दौरान भारी नुकसान हुआ। दूसरी ओर, दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में निर्यात में उछाल देखा गया क्योंकि कंपनियों ने आपूर्ति श्रृंखलाओं को फिर से शुरू करने की कोशिश की, जिससे कुछ को लाभ हुआ जबकि दूसरों को बाधा हुई।
टैरिफ़ का दीर्घकालिक निवेश पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। अनिश्चित व्यापार नियमों का सामना करने वाले व्यवसाय पूंजीगत व्यय में देरी करते हैं, जिससे नवाचार और उत्पादकता को नुकसान पहुँचता है और अंततः निवेशकों को भी नुकसान पहुँचता है।
इतिहास से सबक
इतिहास ने हमें सिखाया है कि टैरिफ अल्पकालिक लक्ष्यों की पूर्ति कर सकते हैं, लेकिन वे अक्सर दीर्घकालिक समझौतों की कीमत पर आते हैं। जबकि वे विशिष्ट उद्योगों के लिए उत्तोलन या सुरक्षा के रूप में उपयोगी हो सकते हैं, वे बाजारों को विकृत करते हैं, कीमतें बढ़ाते हैं, और प्रतिशोध को आमंत्रित करते हैं। वैश्विक अर्थव्यवस्था जो परस्पर जुड़ाव पर बनी है, शायद ही कभी अलग-थलग होकर प्रतिक्रिया करती है। अगर हम इतिहास ने हमें जो मुख्य सबक सिखाया है, उसे संक्षेप में कहें तो, यह है कि दीवारें सुरक्षित लग सकती हैं, लेकिन पुल समृद्धि का निर्माण करते हैं।
3.अमेरिकी टैरिफ: वर्तमान परिदृश्य
फरवरी के मध्य में, संयुक्त राज्य अमेरिका (USA) ने एक राष्ट्रपति ज्ञापन जारी किया था, जिसमें व्यापार संबंधों में निष्पक्षता सुनिश्चित करने और गैर-पारस्परिक व्यापार समझौतों का मुकाबला करने या उन्हें अप्रभावी करने के लिए एक व्यापक योजना विकसित करने का आदेश दिया गया था। निष्पक्ष और पारस्परिक योजना(The Fair & Reciprocal Plan) नामक इस नई नीति का उद्देश्य व्यापार घाटे में कमी सुनिश्चित करना और अमेरिकी सीमा के भीतर उत्पादन के स्थानांतरण को प्रोत्साहित करके आर्थिक और राष्ट्रीय सुरक्षा में सुधार करना है।
अमेरिका का दावा है कि अमेरिका सबसे खुली अर्थव्यवस्थाओं में से एक है और उसने ज्ञापन में व्यापारिक साझेदारों पर अमेरिकी उत्पादों के लिए अपने बाजार बंद रखने का आरोप लगाया है, जिसके परिणामस्वरूप भारी व्यापार घाटा हुआ है। निष्पक्ष और पारस्परिक योजना का उद्देश्य पारस्परिक टैरिफ व्यवस्था की शुरुआत करके अमेरिकी निर्यात के लिए व्यापार बाधाओं को अप्रभावी करना है। इसके लिए यह आवश्यक होगा कि अमेरिका अपने व्यापार साझेदारों द्वारा लगाए गए टैरिफ और गैर-टैरिफ बाधाओं का मूल्यांकन करे और व्यापार बाधाओं को कम करने के लिए व्यापार साझेदारों को मनाने तथा अधिक घरेलू उत्पादन को प्रोत्साहित करने के लिए समान टैरिफ दरों को लागू करें।
ज्ञापन में वर्णित अन्यायपूर्ण टैरिफ में से एक कृषि उत्पादों पर अमेरिका द्वारा लगाया गया 5% औसत टैरिफ है, जबकि भारत द्वारा 30% टैरिफ लगाया जाता है। अन्य उदाहरणों में मोटरसाइकिलों पर 2% टैरिफ लगाया गया, जबकि भारत द्वारा 100% टैरिफ लगाया गया और यूरोपियन यूनियन द्वारा लगाए गए 10% टैरिफ के मुकाबले अमेरिका द्वारा मोटर कारों पर 2.5% टैरिफ लगाया गया। वास्तव में, अमेरिका का दावा है कि 133 देशों ने 6,00,000 से अधिक उत्पादो में से दो-तिहाई से अधिक पर उससे अधिक टैरिफ लगाया। इसलिए अमेरिका इन असमान टैरिफ स्तरों को बड़े व्यापार घाटे के लिए उत्तरदायी ठहराता है जो 2024 में 1 ट्रिलियन डॉलर को पार कर गया है।
जबकि बाद वाले दावे में कहा गया है कि अमेरिका का व्यापार घाटा लगातार बढ़ कर अस्वीकार्य रूप से उच्च स्तर पर पहुंच गया है और कुछ राष्ट्रों के पास अनावश्यक रूप से बहुत अधिक अधिशेष है, यह निश्चित रूप से सच है। 2024 में जिन अर्थव्यवस्थाओं के साथ अमेरिका का सबसे बड़ा व्यापार घाटा है, वे चीन($295 बिलियन), मेक्सिको($172 बिलियन), वियतनाम($124 बिलियन), आयरलैंड($87 बिलियन), जर्मनी($85 बिलियन), ताइवान($74 बिलियन), जापान($69 बिलियन), दक्षिण कोरिया($66 बिलियन), कनाडा($65 बिलियन) और भारत($46 बिलियन) हैं।
पूर्व का यह दावा कि अमेरिका सबसे खुली अर्थव्यवस्थाओं में से एक है, जांच में खरा नहीं उतरता। किसी अर्थव्यवस्था के खुलेपन का एक बुनियादी माप व्यापार की तीव्रता का स्तर है जो वस्तुओं और सेवाओं के निर्यात और आयात के कुल मूल्य को सकल घरेलू उत्पाद(जीडीपी) से विभाजित करके प्राप्त किया जाता है। अमेरिका का व्यापार जीडीपी अनुपात प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में सबसे कम (26.9%) में से एक है। यह न केवल 62.8% के वैश्विक औसत के आधे से भी कम है, बल्कि चीन(38.4%), जापान(46.8%), भारत(50%), यूनाइटेड किंगडम(68.9%), फ्रांस(75.8%), जर्मनी(89.1%), और दक्षिण कोरिया(96.5%) जैसी अन्य प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में भी बहुत कम है।
कम व्यापार तीव्रता के अतिरिक्त, दूसरी विशेषता जो अमेरिकी व्यापार को अन्य प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं से अलग करती है, वह है इसकी कम आयात तीव्रता (जीडीपी का 15.3%), जो प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में सबसे कम है। इसके विपरीत, दक्षिण कोरिया की आयात तीव्रता जीडीपी के 48.3% के साथ सबसे अधिक है। इसी तरह, एक और प्रमुख पहलू जो अमेरिकी बाह्य व्यापार को अलग करता है, वह है निर्यात और आयात के बीच बड़ा अंतर। अमेरिका के जीडीपी में आयात का अनुपात उसके निर्यात अनुपात से एक तिहाई से भी अधिक है। इसके विपरीत, चीन और जर्मनी में जीडीपी में निर्यात अनुपात आयात अनुपात से बहुत अधिक हैं।
तो, बड़ा सवाल यह है कि अमेरिका का निर्यात इतना कम क्यों है? करीब से जांच करने पर पता चलता है कि यह वस्तु निर्यात ही है जो इस असंतुलन के लिए जिम्मेदार है। वास्तव में, अमेरिका सेवा व्यापार में $200 बिलियन से अधिक का अधिशेष भी उत्पन्न करता है, जहां यह वाणिज्यिक सेवाओं के वैश्विक निर्यात का 12.8% हिस्सा है और इस क्षेत्र में निर्यात और आयात दोनों में पहले स्थान पर है। यह इसके वस्तु व्यापार प्रोफ़ाइल के बिल्कुल विपरीत है, जहां वैश्विक निर्यात में इसका केवल 8.3% हिस्सा है। तो अमेरिका वस्तु व्यापार में अपने निर्यात प्रदर्शन को सेवा क्षेत्र के निर्यात में दोहराने में असमर्थ क्यों रहा है? या दूसरे शब्दों में कहें तो, अमेरिकी व्यापार भागीदार अमेरिकी वस्तु निर्यात की वृद्धि को सीमित करने के लिए अत्यधिक टैरिफ क्यों लगाते हैं, जबकि उनके पास अमेरिकी सेवा निर्यात पर ऐसी कोई बाधा नहीं है?
इकोनॉमिक एण्ड पॉलिटिकल वीकली में छपे आलेख के अनुसार इन दोनों सवालों का जवाब यह है कि पक्षपातपूर्ण टैरिफ व्यवस्था के बजाय, वैश्विक प्रतिस्पर्धात्मकता में भारी असमानताएं हैं जिसके कारण अमेरिका सेवा व्यापार में वैश्विक रैंकिंग में शीर्ष पर होने के साथ ही, वस्तु व्यापार में सबसे बड़ा घाटा भी वहन करता हैं। एक विस्तृत विश्लेषण से पता चलता है कि कृषि और विनिर्माण क्षेत्रों के निर्यात प्रदर्शन पर उनके सीमित आकार का बोझ है। अमेरिका के सकल मूल्य वर्धित(GVA) में कृषि का हिस्सा 1% से भी कम है जो यूरोपीय संघ के लगभग 2% के औसत से बहुत कम है। इसी तरह, GVA में विनिर्माण का हिस्सा अमेरिका में सिर्फ 10% है, जबकि यह जर्मनी(18.5%), जापान(19.2%), और चीन(26.2%) जैसे प्रतिस्पर्धी देशों में बहुत अधिक है। अमेरिका एक “सेवा-प्रधान” (Service-driven) अर्थव्यवस्था है। अमेरिका की GDP का लगभग 70% से भी अधिक हिस्सा सेवाओं से आता है (जैसे IT, फाइनेंस, हेल्थकेयर, एजुकेशन, लॉजिस्टिक्स, कंसल्टिंग आदि)। उद्योग और कृषि का हिस्सा कम होता जा रहा है। इसलिए अमेरिकी निर्यात में उनका भाग अधिक है जिनके उत्पादन में उसे अधिक अतिरेक प्राप्त है अर्थात सेवाएं। अमेरिका के पास उच्च कौशल और तकनीक आधारित सेवाएं जैसे विश्व स्तरीय विश्वविद्यालय, रिसर्च संस्थान, और तकनीकी कंपनियां हैं। इसलिए वो सेवाएं निर्यात करता है (जैसे: सॉफ्टवेयर और टेक्नोलॉजी सॉल्यूशंस, फाइनेंशियल कंसल्टिंग, मेडिकल रिसर्च, बिज़नेस स्ट्रैटेजी,मीडिया और एंटरटेनमेंट आदि)। अमेरिका में सामान बनाना (जैसे कपड़े, खिलौने, मशीनें) महंगा पड़ता है क्योंकि मजदूरी और लागत अधिक है। इसलिए अमेरिका कई वस्तुएं आयात करता है और स्वयं सेवाओं का निर्यात करता है। अमेरिका की बड़ी कंपनियां जैसे गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, अमेजन, मैकिंजी, गोल्डमैन सैक्स आदि पूरे विश्व में सेवाएं देती हैं। इनका बहुत बड़ा राजस्व सेवा निर्यात से आता है। इसलिए, पक्षपातपूर्ण टैरिफ व्यवस्था को दोष देने के बजाय, अमेरिका के लिए बेहतर होगा कि वह अपनी व्यापक आर्थिक नीतियों पर आत्मनिरीक्षण करे, ताकि वस्तु व्यापार में उसके निराशाजनक प्रदर्शन के वास्तविक कारणों का पता चल सके।
2 अप्रैल को मुक्ति दिवस कहते हुए, राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने अमेरिका के साथ व्यापार घाटा रखने वाले अधिकांश देशों पर 10% का न्यूनतम बेसलाइन टैरिफ घोषित किया है। हालांकि, अन्य सभी देशों, जिनमें लगभग सभी बड़े व्यापार साझेदार शामिल हैं, जिनके साथ अमेरिका का बड़ा व्यापार घाटा है, पर बहुत अधिक दरें लगाई गई हैं। जिन देशों पर अधिक टैरिफ लगाया गया है उनमें यूरोपीय संघ(20%), जापान(24%), दक्षिण कोरिया(26%), भारत(27%), और वियतनाम(46%) शामिल हैं। इसी तरह, कनाडा और मैक्सिको, इसके दो सबसे बड़े व्यापारिक साझेदारों से आयात का एक बड़ा हिस्सा आता है जिस पर 25% का टैरिफ लगाया जाएगा। सबसे अधिक टैरिफ चीन के लिए हैं, जिनकी दरें अब इसके प्रतिशोधात्मक उपायों के जवाब में 145%(जिसे अब 245% किया जाएगा) तक बढ़ा दी गई हैं।
अमेरिकी व्यापार साझेदारों, विशेष रूप से अमेरिका के प्रमुख निर्यातकों का नुकसान भी काफी बड़ा होगा। 2024 में अमेरिका को सबसे ज्यादा माल निर्यात करने वाले देश यूनाइटेड किंगडम($68 बिलियन), भारत($87 बिलियन), दक्षिण कोरिया($131 बिलियन), वियतनाम($136 बिलियन), जापान
($148 बिलियन), जर्मनी($160 बिलियन ), कनाडा($420 बिलियन), चीन($438 बिलियन) और मैक्सिको($505 बिलियन) थे। सबसे ज्यादा प्रभावित कनाडा और मैक्सिको जैसे देश होंगे, जो अमेरिका को लगभग तीन-चौथाई माल निर्यात करते हैं । जापान, दक्षिण कोरिया और भारत जैसे देश, जिनके माल निर्यात में अमेरिकी आयात का पांचवां हिस्सा है, उनके लिए भी हालात कठिन होंगे। यद्यपि चीनी माल निर्यात में अमेरिकी आयात का केवल दसवां हिस्सा ही है, फिर भी इसका विशाल आकार गंभीर परिणाम पैदा कर सकता है।
4.वैश्विक अर्थव्यवस्था पर प्रभाव
WTO की चेतावनी
विश्व व्यापार संगठन ने चेतावनी दी है कि डोनाल्ड ट्रम्प के टैरिफ इस वर्ष अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को उलट देंगे, जिससे वैश्विक आर्थिक विकास में गिरावट आएगी। WTO ने पहले 2025 के लिए वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि का अनुमान 2.8% लगाया था, जिसे घटा कर अब 2.2% कर दिया है।
जेपी मॉर्गन रिसर्च
जेपी मॉर्गन रिसर्च के अनुसार अमेरिकी टैरिफ घोषणा से उत्तरी अमेरिका के बाहर विकास पूर्वानुमानों में गिरावट की संभावना है। कनाडा और मैक्सिको में मंदी की आशंका पहले से ही है, और यूरोप, चीन और कुछ उभरती अर्थव्यवस्थाओं, मुख्य रूप से एशिया में विकास अनुमानों में मामूली गिरावट भी की गई है। नतीजतन, वैश्विक वास्तविक जीडीपी वृद्धि 2025 की चौथी तिमाही में 1.4% रहने की उम्मीद है, जो वर्ष की शुरुआत में 2.1% से कम है। जेपी मॉर्गन की वरिष्ठ अर्थशास्त्री नोरा सेन्टिवनी ने कहा, "चीन से आयात बिल को देखते हुए, यह टैरिफ अकेले ही प्रतिस्थापन से पहले अमेरिकी घरों और व्यवसायों पर $400 बिलियन की भारी कर वृद्धि के बराबर बोझ डालेगा।"
टैरिफ युद्ध में कोई विजेता नहीं: शी जिनपिंग
इस बीच, चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने दक्षिण-पूर्वी एशिया के राजनयिक दौरे की शुरुआत करते हुए कहा कि व्यापार युद्ध में कोई भी जीतता नहीं है, उन्होंने चीन को टैरिफ पर ट्रम्प के नवीनतम कदमों के विपरीत स्थिरता के लिए एक ताकत के रूप में पेश किया। शी ने वियतनामी और चीनी आधिकारिक मीडिया में संयुक्त रूप से प्रकाशित एक संपादकीय में लिखा, "व्यापार युद्ध या टैरिफ युद्ध में कोई विजेता नहीं होता है।" "हम दोनों देशों को बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली, स्थिर वैश्विक उद्योग और आपूर्ति श्रृंखलाओं और खुले और सहकारी अंतरराष्ट्रीय वातावरण की दृढ़ता से रक्षा करनी चाहिए।”
अब जबकि अमेरिकी सरकार ने अगले तीन महीनों के लिए पारस्परिक शुल्क लागू करने पर रोक लगा दी है, तो व्यापार भागीदारों के मध्य बातचीत के बाद बेहतर टैरिफ दरों की उम्मीद कर सकते हैं। पारस्परिक रूप से तैयार बहुपक्षीय संधियों को दरकिनार करने के लिए एकतरफा और मनमाना हस्तक्षेप केवल एक ऐसा खेल हो सकता है जिससे बाजार और वैश्विक अर्थव्यवस्था में उथल-पुथल मच जाए। वैश्वीकरण ने राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं को इतना परस्पर निर्भर बना दिया है कि आम सहमति वाली नीतियाँ अक्सर अधिक उपयुक्त होती हैं।
5.भारतीय अर्थव्यवस्था और अमेरिकी टैरिफ
अमेरिकी टैरिफ से वैश्विक स्तर पर बढ़ते व्यापार तनाव के बीच वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय अन्य देशों से भारत की ओर व्यापार के महत्वपूर्ण जोखिमों का आकलन कर रहा है और विशेष रूप से चीन, वियतनाम और इंडोनेशिया से देश में अमेरिकी कृषि उपज और कारखाना वस्तुओं के आयात में संभावित वृद्धि को लेकर चिंतित है। फाइनेशियल एक्सप्रेस को एक सरकारी अधिकारी द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार, "हाल ही में किए गए एक आकलन में वैश्विक व्यापार तनाव के बीच पारस्परिक शुल्कों के कारण भारत में माल की डंपिंग के जोखिम को उजागर किया गया है। अमेरिका में बढ़ती लागत के कारण चीन, वियतनाम और इंडोनेशिया जैसे देशों के निर्यातक भारत में माल भेजने के लिए प्रेरित हो सकते हैं, जो सभी अमेरिकी व्यापार घाटे का सामना कर रहे हैं, जिससे आयात में उछाल आ सकता है। इसके अलावा, अमेरिकी वस्तुओं पर चीन द्वारा लगाए गए जवाबी शुल्कों के कारण भारत में अमेरिकी कृषि उत्पादों का प्रवाह और बढ़ सकता है।"
GTRI रिपोर्ट
Global Trade Research Initiative (GTRI) कि रिपोर्ट के अनुसार "भारत ने कई प्रमुख क्षेत्रों में स्वाभाविक रूप से प्रतिस्पर्धात्मक लाभ प्राप्त किया है। इनमें से कपड़ा और परिधान प्रमुख है। चीनी और बांग्लादेशी निर्यात पर उच्च टैरिफ से भारत को बाजार भागीदारी प्राप्त करने, स्थानांतरित उत्पादन को आकर्षित करने और अमेरिका को निर्यात बढ़ाने में सहायता मिलने की आशा है।"
नीति आयोग द्वारा विश्लेषण
नीति आयोग के मूल्यांकन से पता चलता है कि अमेरिका में 30 शीर्ष आयातों में से भारत को एक तिहाई या लगभग 10 उत्पादों पर प्रतिस्पर्धात्मक लाभ है और अमेरिका के बाजार में अधिक हिस्सेदारी हासिल करने की ज्यादा संभावना है।" नीति आयोग के विश्लेषण से पता चलता है कि अमेरिकी परिधान आयात में चीन की हिस्सेदारी 25% है, जबकि भारत की 3.8% है। उच्च टैरिफ अंतर के साथ भारत के लिए एक बड़ा अवसर है।
ICRIER रिसर्च
ICRIER द्वारा किए गए एक अध्ययन में कहा गया है कि उच्च आयात शुल्क अक्षमता को जन्म देते हैं और भारत के कृषि उत्पादों के निर्यात को अमेरिका द्वारा पारस्परिक शुल्क के अधीन कर देते हैं। ICRIER द्वारा 'ट्रम्प के टैरिफ खतरे: भारत के कृषि व्यापार पर संभावित प्रभाव' शीर्षक से प्रकाशित एक शोधपत्र में कहा गया है, "यदि अमेरिका ने भी उसी तरह के टैरिफ लागू किए, तो भारतीय कृषि को तीन स्तरों पर चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा - देश-स्तर, उत्पाद-स्तर की प्रतिस्पर्धात्मकता में कमी और बढ़ी हुई गैर-टैरिफ बाधाएँ।" टैरिफ में व्यापक वृद्धि से भारत से अमेरिका को भेजे जाने वाले फ्रोजन झींगा और चावल की प्रतिस्पर्धात्मकता कम हो जाएगी।
पत्र में कहा गया है कि टैरिफ संरक्षण के स्थान पर भारत को उत्पादकता बढ़ाने और कृषि मूल्य श्रृंखलाओं के आधुनिकीकरण जैसे सही साधनों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए ताकि कृषि उपज में वैश्विक रूप से प्रतिस्पर्धी बना रहा जा सके। इसमें भारत के कृषि उत्पादों की निर्यात क्षमता को बढ़ाने के लिए शीत भंडारण क्षमता का विस्तार, लॉजिस्टिक्स अवसंरचना को उन्नत करने तथा बेहतर गुणवत्ता प्रमाणन और पता लगाने की क्षमता(traceability) सुनिश्चित करने का सुझाव दिया गया है। शोध-पत्र में आगे कहा गया है कि उच्च उपज वाली फसलों के लिए अनुसंधान और विकास में निवेश बढ़ाना, मशीनीकरण और बेहतर सिंचाई तकनीकें सही दिशा में उठाए गए कदम हैं। इसमें कहा गया है कि, "वैश्विक मानकों की तुलना में प्रमुख वस्तुओं की उपज के अंतर को बीज प्रौद्योगिकी, परिशुद्ध खेती और कुशल उर्वरक उपयोग के माध्यम से दूर किया जाना चाहिए।”
निष्कर्ष
अमेरिकी टैरिफ युद्ध अंतरराष्ट्रीय व्यापार संबंधों को नया आकार दे रहा है। वैश्विक व्यापार नीतियों की बदलती प्रकृति का मतलब है कि भारत को इस बदलते परिदृश्य को सावधानी से नेविगेट करना चाहिए। भारत खुद को ऐसी स्थिति में पाता है जहाँ वह चुनौतियों को अवसरों में बदल सकता है। भारत के लिए अल्पकालिक दृष्टिकोण आशाजनक प्रतीत होता है लेकिन दीर्घकालिक परिणाम अप्रत्याशित बने हुए हैं। वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं में व्यवधान और प्रभावित देशों की ओर से जवाबी टैरिफ उपाय अप्रत्याशित चुनौतियों को जन्म दे सकते हैं। भारत को इन बदलती परिस्थितियों का लाभ उठाने के लिए कौशल निर्माण के साथ विनिर्माण क्षमता और कृषि सुधारो की रफ्तार बढ़ाने की आवश्यकता होगी। इसके लिए राजनीतिक कौशल और साहस की जरूरत है।
आफ़ाक़ अंसर
रिसर्च स्कॉलर, MLSU उदयपुर