किसी भी देश की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और अन्य बातों को समाहित करती सामूहिक जीवन व्यवस्था, जो कानूनी संविधान के माध्यम से संचालित होती है, उसकी सफलता का आधार वहां के समुदायों के सामाजिक समन्वय और सहयोग पर निर्भर होता है। यह सफलता तभी संभव है जब न्याय और समानता आधारित मानवीय मूल्यों को आम जनमानस की मानसिकता के केंद्र में स्थापित किया जाए। इस उद्देश्य को परिपूर्ण करने के लिए वैसी ही शिक्षा नीति और उसी के अनुरूप पूरी शिक्षा व्यवस्था को आकार देना अनिवार्य हो जाता है।
केंद्र सरकार द्वारा NEP-2020 के नाम से नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति देश के सामने प्रस्तुत की जा चुकी है। किसी भी देश की शिक्षा नीति का दस्तावेज़ तीन वास्तविकताओं को समाविष्ट करता है— अब तक की शैक्षणिक यात्रा, उसमें मिली सफलताएं और कमियाँ का परोक्ष स्वीकार; वर्तमान परिस्थितियों का प्रतिबिंब; और भविष्य के समाज, देश तथा विश्व के लिए यह एक मील का पत्थर या दिशासूचक के रूप में कार्य करता है।
लोकतंत्र की सही परिभाषा और प्रणाली में देश के भविष्य के निर्माण में आम व्यक्ति के सुझावों और मतों को स्थान दिया जाता है ताकि हर किसी को अपने सपनों की दुनिया रचने की प्रेरणा और उत्साह मिल सके। शायद इसी वजह से वर्तमान सरकार ने शिक्षा नीति बनाने की प्रक्रिया में आम जनमानस से सुझाव आमंत्रित किए होंगे। कहा जाता है कि 2,50,000 ग्राम पंचायतों में से 2,00,000 सुझाव प्राप्त हुए थे। यह विचारणीय विषय है कि उनमें से कितनों पर वास्तव में ध्यान दिया गया। ऐसा इसलिए कहना पड़ता है क्योंकि इस सरकार ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया की नींव मानी जाने वाली संसद में इस नीति पर कोई चर्चा ही नहीं की। शायद जनभागीदारी और लोकतंत्र की यह एक नई केंद्रीकृत प्रणाली हो सकती है, जिसमें जनप्रतिनिधियों की आवश्यकता ही नहीं रहती और लोग सीधे केंद्र सरकार से संवाद करें।
जो लोग मानते हैं कि यह पद्धति उपयुक्त नहीं है और लोकतंत्र की पारंपरिक पद्धति बनी रहनी चाहिए, उनके लिए अभी अंतिम दरवाजे बंधारणीय अधिकारों की प्राप्ति के लिए लोकतांत्रिक संघर्ष और कानूनी प्रक्रियाओं के स्वरूप में खुले हैं। अभी यह नीति को एक पूर्ण कार्यक्रम, कानून या ढांचे में परिवर्तित होने में समय भी लगेगा और बहुत सारी प्रक्रियाओं से भी गुजरना होगा। इसलिए इसके संपूर्ण अमल में आने से पहले, हम अपनी तरफ से जितना हो सके, प्रयास कर सकते हैं ताकि भविष्य के भारत में न्याय, समानता, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र को बनाए रखने वाली शिक्षा नीति और शिक्षा व्यवस्था कायम रह सके। अन्यथा यदि यह शिक्षा नीति ज्यों की त्यों लागू हो जाती है तो हो सकता है कि भविष्य में जनभागीदारी की वह वास्तविक स्थिति ना रह जाए, जिसकी हम कल्पना करते हैं। क्योंकि फिर तैयार हो रही शिक्षा व्यवस्था से तैयार होता समाज शायद सत्ता के केंद्रीकरण में अधिक विश्वास रखने वाला बन सकता है। समय अभी हमारे हाथ में है, इसलिए आज ही जागरूक होना पड़ेगा ताकि भविष्य को आशाजनक बनाया जा सके। ऐसा कहा जाता है कि इस नीति के निर्माण में केवल नाममात्र के 75 सांसदों ने भाग लिया। हाँ, यह अलग बात है कि कुल सांसदों की संख्या लगभग 800 है। लेकिन कल को इतने लोगों को भी अवसर न मिले।
34 वर्षों बाद यह नई शिक्षा नीति हमारे सामने फिर प्रस्तुत की गई है। इससे पहले स्वतंत्र भारत में 1968 और 1986 में शिक्षा नीतियाँ लाई गई थीं। बाद में 1992 में कुछ सुधार किए गए थे। 1968 से पहले कोई औपचारिक नीति दस्तावेज प्रस्तुत नहीं हुआ था, फिर भी उस समय में शिक्षा क्षेत्र में अद्भुत कार्य हुए थे। देश के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना आज़ाद द्वारा University Grants Commission (UGC), All India Council for Technical Education (AICTE), IITs और अन्य शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना उन्हीं उपलब्धियों में से है, जिनका भारत को वैश्विक स्तर पर नाम कमाने में बड़ा योगदान रहा है।
मूलतः इस शिक्षा नीति के दस्तावेज़ में स्कूल शिक्षा, उच्च शिक्षा, शिक्षा से जुड़ी अन्य महत्वपूर्ण बातें और इसके क्रियान्वयन जैसे विषय शामिल हैं। नई शिक्षा नीति तैयार करने के लिए पहली समिति ‘The Committee for Evolution of New Education Policy’ के नाम से श्री टी.एस.आर. सुब्रमण्यम की अध्यक्षता में अक्टूबर 2015 में गठित की गई थी, जिसने 7 मई 2016 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। परंतु किसी कारणवश यह रिपोर्ट जनसामान्य तक विस्तृत रूप से नहीं पहुँच पाई। इसके बाद जून 2017 में ‘Committee for the Draft National Education Policy’ का गठन श्री के. कस्तूरीरंगन के नेतृत्व में हुआ, जिसने 31 मई 2019 को तैयार किया गया मसौदा प्रस्तुत किया, जो आज हमारे सामने है।
इस नीति के मसौदे में शब्दों का चयन, भाषा की अभिव्यक्ति, मूल्यों व सिद्धांतों का वर्णन, और उद्देश्यों की प्राप्ति का खाका इस तरह से प्रस्तुत किया गया है कि पहली नजर में यह प्रभावित करता है। परंतु हमें ध्यान रखना होगा कि हम फिर एक बार ‘हथेली में चाँद’ दिखा देने की कला का शिकार न हो जाएँ। ये इसलिए कि इस अत्यंत महत्वाकांक्षी शिक्षा नीति को लागू करने के लिए जो बजट चाहिए वह जीडीपी का 8 से 10 प्रतिशत है, जबकि प्रस्तावित बजट केवल 6 प्रतिशत है। यदि वास्तव में इतना भी बजट शिक्षा के लिए आवंटित कर दिया जाए तो यह एक बड़ी जीत होगी, क्योंकि इतने वर्षों से 6 प्रतिशत खर्च करने की बातें हो रही हैं, परंतु अब तक केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा शिक्षा पर जो वास्तविक खर्च किया गया है वह अधिकतम 4.1 प्रतिशत से अधिक नहीं है।
इसके अतिरिक्त, शब्दों की मोहक माया में छिपे गहरे संदेशों और नीयत को भी समझने की आवश्यकता है, जिससे कि ‘खेद के बाद की समझदारी’ जैसी स्थिति न बन जाए। क्योंकि हमारे देश की शिक्षा नीति, जो एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की भावना में बनी होनी चाहिए, उसमें संविधानिक मूल्य जैसे धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, न्याय और भाईचारा को उचित स्थान नहीं दिया गया है। इसके विपरीत, प्राचीन भारतीय मूल्यों, सिद्धांतों और भारतीय संस्कृति पर आधारित शिक्षा व्यवस्था पर बल दिया गया है।
जब ‘भारतीय संस्कृति’ की बात की जाती है, तो यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि किस संस्कृति की बात की जा रही है—क्या यह संविधान द्वारा स्वीकार की गई विविधतापूर्ण संस्कृति है या किसी विशेष विचारधारा पर आधारित सांस्कृतिक परंपरा को शिक्षा व्यवस्था के माध्यम से स्थापित किया जाएगा? केवल प्राचीन भारत की बात करके और मध्यकालीन व स्वतंत्र भारत की उपलब्धियों व इतिहास की उपेक्षा करना पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण प्रतीत होता है। और यदि यह दृष्टिकोण नीति आधारित भविष्य की संरचना में भी मौजूद रहेगा, तो नीति के शब्दों की सुंदरता वास्तविक जीवन में मूर्त रूप नहीं ले सकेगी।
यदि इस नीति का अध्ययन करें तो यह दो मुख्य भागों में विभाजित है—स्कूल शिक्षा और उच्च शिक्षा। स्कूल शिक्षा को मुख्यतः आठ उपविभागों में विभाजित किया गया है। स्कूल शिक्षा संबंधी अध्ययन में कुछ बातें अत्यंत सराहनीय हैं, वहीं कुछ विषय अत्यंत गंभीर भी हैं। यहाँ उसका विस्तृत वर्णन संभव नहीं है, लेकिन कुछ बातें अवश्य ध्यान खींचती हैं।
सबसे पहली बात जो इस नीति में की गई है वह यह है कि प्रारंभिक बाल्यावस्था में ही बच्चों को अक्षरज्ञान और गणितीय ज्ञान का मजबूत आधार दिया जाए। ‘Early Childhood Care and Education (ECCE)’ के अंतर्गत तैयार की गई यह नीति वास्तव में अत्यंत सराहनीय है। वर्ष 2025 तक सभी बच्चों का यह आधार मजबूत हो, यह लक्ष्य निर्धारित किया गया है।
इसके क्रियान्वयन के लिए मुख्य साधन के रूप में आंगनवाड़ी और प्री-प्राइमरी स्कूलों का उपयोग किया जाएगा। हम जानते हैं कि इस अवस्था में बच्चा अत्यंत संवेदनशील होता है और उसे सिखने-सिखाने की पद्धति अत्यंत सूक्ष्म समझ की माँग करती है। सरकार के आधीन चलने वाले आंगनवाड़ी केंद्रों में इस नीति को लागू करने के लिए आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को जिम्मेदारी सौंपी जाएगी।
10+2 शिक्षण प्राप्त आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के लिए 6 माह का सर्टिफिकेट कोर्स और इससे कम शिक्षा प्राप्त करने वालों के लिए 1 वर्ष का डिप्लोमा कोर्स कराने की बात कही गई है। इसी प्रकार, प्राइवेट प्री-प्राइमरी स्कूलों में शिक्षकों की भर्ती व प्रशिक्षण को लेकर और कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है।
अब इतनी महत्वाकांक्षी और वास्तव में लाभकारी कहे जाने योग्य नीति के क्रियान्वयन की प्राथमिक तैयारी इतनी कमजोर हो, तो हम इस पर कितनी आशा रख सकते हैं? दीर्घकालीन योजना के अंतर्गत विशेष प्रशिक्षित शिक्षकों की व्यवस्था 2030 तक की गई है। इसी तरह, प्रत्येक कक्षा 1 में प्रवेश लेने वाले बच्चे को तीन माह की तैयारी करवाकर कक्षा 1 के लिए उपयुक्त बनाने की बात की गई है। साथ ही, 2025 तक कक्षा 1 से 5 के विद्यार्थियों के लिए भाषा और गणित पर विशेष ध्यान केंद्रित कर मजबूत नींव बनाने की योजना भी प्रस्तुत की गई है।
पीयर एजुकेटर्स यानी बच्चे द्वारा बच्चे को सिखाने की बात है, जो शिक्षक की निगरानी में होगी। यह एक बहुत अच्छा विचार है, लेकिन इसे अमल में लाना एक बड़ा कार्य है। इसी तरह नीति में एजुकेशन वॉलंटियर्स का उल्लेख किया गया है, जिसमें समाज के पढ़े-लिखे और विषय-विशेषज्ञ लोग स्वेच्छा से अपनी योग्यता और समय समाज सेवा के लिए देने की बात है। इन वॉलंटियर्स के चयन की प्रक्रिया और इसमें किसी विशेष विचारधारा के लोगों को प्राथमिकता दी जाएगी या नहीं – यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है जिस पर ध्यान देना चाहिए।
शिक्षा प्रणाली को 5+3+3+4 के ढांचे में विभाजित करने की नीति पर चर्चा की गई है। पहले चरण में 3 से 8 वर्ष के बच्चों को शामिल किया गया है, जिसमें प्री-प्राइमरी से लेकर कक्षा 2 तक के बच्चे आते हैं। फिर 8 से 11 वर्ष (कक्षा 3 से 5), 11 से 14 वर्ष (कक्षा 6 से 8), और अंत में 14 से 18 वर्ष (कक्षा 9 से 12) तक के चरण हैं। यह चार-स्तरीय ढांचा प्रशंसनीय है, लेकिन इसे लागू करना एक बहुत बड़ा बदलाव है। इसमें कक्षा 5 तक मातृभाषा में शिक्षा देने की बात कही गई है, जिसके लिए सभी भारतीय भाषाओं में पाठ्यक्रम की उपलब्धता सुनिश्चित करना एक बड़ा कार्य होगा।
भाषाओं के संदर्भ में नीति में कक्षा 5 तक मातृभाषा में शिक्षा देने की बात है। यह नीति पहली नजर में उचित लगती है, लेकिन वैश्वीकरण के इस युग में ज्ञान और विज्ञान की समृद्ध विषयवस्तु बच्चों को उनकी मातृभाषा में उपलब्ध कराना आवश्यक होगा, अन्यथा वे विश्व से कदम से कदम मिलाकर नहीं चल पाएंगे। नीति में यह भी कहा गया है कि बच्चे को प्री-प्राइमरी से ही तीन या अधिक भाषाएं सिखाई जाएं – यह बहुभाषी दृष्टिकोण है। कक्षा 6 के बाद बच्चा अपनी इच्छा से भाषाओं में परिवर्तन कर सकता है। उच्च कक्षाओं में विज्ञान और गणित जैसे विषयों को द्विभाषिक रूप में पढ़ाने का प्रस्ताव है।
नीति के अनुसार सरकार क्या करना चाहती है – यह तब तक स्पष्ट नहीं होगा जब तक उसके क्रियान्वयन की प्रक्रिया पूरी तरह सामने न आए। संस्कृत को प्राथमिकता दी गई है और उसके अध्ययन की व्यवस्था हर स्तर पर की जाएगी। साथ ही, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, उड़िया, फारसी और प्राकृत जैसी आठ भाषाओं के लिए भी प्रावधान है। लेकिन उर्दू भाषा को पूरी तरह अनदेखा किया गया है – जो कि देश की सातवीं सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। यह सरकार की पक्षपाती नीति को उजागर करता है। विदेशी भाषाएं सीखने की बात भी की गई है लेकिन अरबी भाषा को शामिल नहीं किया गया, जबकि लगभग 80 लाख एनआरआई नागरिक अरबी भाषी देशों में रहते हैं।
पाठ्यक्रम का ढांचा तैयार करने के लिए केंद्र स्तर पर नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क (NCF) बनाया जाएगा, जो राष्ट्रीय स्तर पर पाठ्यक्रम की रूपरेखा तय करेगा और उसके आधार पर पुस्तकें तैयार की जाएंगी। नीति की वैचारिक पृष्ठभूमि में कई मामलों में केन्द्रीयकरण की प्रवृत्ति दिखाई देती है, जो एक चिंतनीय विषय है। परीक्षाओं और मूल्यांकन के संबंध में भी नई अवधारणाएं पेश की गई हैं।
व्यावसायिक विषयों (Vocational Subjects) को कक्षा 6 से नियमित शिक्षा में शामिल करने की बात कही गई है। लेकिन इससे यह डर है कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के कई छात्र कम उम्र में काम की तलाश में ड्रॉपआउट हो सकते हैं और सर्टिफिकेट के आधार पर छोटे-मोटे कामों में लग जाएं। इससे “हेलो, हाय, थैंक यू” बोलने वाला और थोड़ा बहुत कंप्यूटर जानने वाला एक नया मजदूर वर्ग तैयार हो सकता है।
समानता और समावेश (Equity and Inclusion) की बात नीति में की गई है, जो सराहनीय है। इस संदर्भ में SEDG (Socially and Economically Disadvantaged Groups) शब्द का उपयोग किया गया है, लेकिन इसके स्पष्ट मापदंड अभी सामने नहीं आए हैं। SEZ (Special Education Zone) की स्थापना का प्रस्ताव है। साथ ही Public-Private Partnership की बात भी पहली बार सामने आई है, और प्रकाशन, वितरण, पुस्तकें तथा शिक्षा सेवाओं में चैरिटेबल ट्रस्ट्स, सामाजिक संस्थाओं और NGOs की भागीदारी का भी उल्लेख है। लेकिन यह सुनिश्चित करना आवश्यक होगा कि इस सेवाभाव के बहाने मुनाफा कमाने वाले तत्व शिक्षा व्यवस्था में प्रवेश न कर जाएं। नहीं तो SEZ (Special Education Zone) को SEZ (Special Economic Zone) में बदलने में देर नहीं लगेगी।
अब सबसे गंभीर बात यह है कि समाज के अंतिम व्यक्ति के सशक्तिकरण की बड़ी-बड़ी बातें नीति में की गई हैं, लेकिन कहीं भी आरक्षण के माध्यम से सामाजिक न्याय का उल्लेख नहीं किया गया है, जो चिंताजनक है और तुरंत ध्यान देने योग्य विषय है। इसके आगे बढ़ते हुए, जहाँ समानता की बात की गई है, वहाँ इतने विविध और अनेक अल्पसंख्यक समुदायों वाले देश की शिक्षा नीति में ‘अल्पसंख्यक’ शब्द का मात्र एक स्थान पर उपयोग हुआ है।
हर किसी को शिक्षा प्राप्त हो, इस उद्देश्य से नीति में GER (Gross Enrolment Ratio) को 2030 तक प्री-स्कूल से माध्यमिक स्तर तक 100% तक पहुँचाने की बात कही गई है। इसके लिए विभिन्न नीतिगत बिंदुओं का उल्लेख हुआ है। RTE जो कि 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए था, उसे 3 से 19 वर्ष तक विस्तृत करने की बात इस नीति दस्तावेज में की गई है, लेकिन इसके लिए कोई विस्तार से चर्चा नहीं की गई है। RTE की पुनः समीक्षा करने की बात तो है, लेकिन इसे प्रभावी बनाने के लिए कोई ठोस कानूनी आधार प्रदान करने का उल्लेख नहीं है। RTE के अनिवार्य होने के बावजूद 2009 से लेकर आज तक मात्र 12% सफलता मिल पाई है, तो यदि इसे और अधिक प्रभावी और मजबूत नहीं बनाया गया, तो उम्र की सीमा बढ़ाने से दस्तावेज तो अच्छा दिखेगा, पर उसकी वास्तविक असर कितनी होगी, कहना कठिन है।
अंत में, शिक्षा का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष—शिक्षकों को लेकर नीति में विस्तार से चर्चा की गई है। शिक्षकों को तैयार करने के लिए चार वर्षीय एकीकृत B.Ed पाठ्यक्रम की बात की गई है। नीति में प्रत्येक स्तर पर TET को अनिवार्य करने का भी उल्लेख है। CPD (Continuous Professional Development) के तहत शिक्षकों और प्रिंसिपलों के लिए हर वर्ष 50 घंटे का व्यापक अध्ययन और विकास के लिए समय निर्धारित किया गया है।
इसके अतिरिक्त प्रशासनिक सुगमता और नियमन हेतु कई अन्य पहलुओं को भी शामिल किया गया है। जिन पर आने वाले समय में विस्तृत चर्चा और विवरण करते हुए यह प्रयास करना होगा कि इसका स्वरूप न्यायपूर्ण बना रहे और यह सही तरीके से लागू हो सके। एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश में जहाँ इतनी विविधता है, वहाँ सभी समुदायों के लोगों को रुचि लेकर अपनी बात रखनी चाहिए। जिस तरह से नीति में संवैधानिक अधिकारों की अपेक्षा संवैधानिक कर्तव्यों पर अधिक बल देकर एक विशेष प्रकार की सोच प्रस्तुत की गई है और जिस प्रकार केंद्रीकरण की दिशा में पहल की गई है, उसे देखते हुए यह आवश्यक है कि भविष्य में संवैधानिक मूल्यों को कोई क्षति न पहुँचे और शिक्षा नीति का क्रियान्वयन जन-जागरूकता के साथ हो।
कई बातें अत्यंत स्वागत योग्य हैं, पर एक वाक्य में कहें तो—
"IT'S TOO GOOD TO BE PROVED."
यह तो आने वाला समय ही बताएगा कि सुंदर शब्दों से सजा यह दस्तावेज कितना टिकाऊ और न्यायसंगत साबित होता है।