संतुलित जीवन : एक ऐसा सफ़र जो अंदर की शांति तक जाता है

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By Aabha admin May 01, 2025

संतुलित जीवन: एक तलाश जो थकावट में खो गई है 

आज की युवा पीढ़ी के पास विकल्प बहुत हैं, लेकिन मानसिक शांति बहुत कम। पढ़ाई हो या करियर, हर मोर्चे पर दौड़ लगी है। इस दौड़ में हर कोई तेज़ भागना चाहता है, लेकिन कोई नहीं पूछता – “तू थका तो नहीं?”

इस लेख में हम बात करेंगे उस 'संतुलन' की, जिसे पाना तो सभी चाहते हैं, लेकिन जो सबसे पहले खो जाता है – पढ़ाई के प्रेशर में, नौकरी की चिंता में, और 'सेटल' होने की होड़ में।

पढ़ाई का दबाव: नंबरों के पीछे भागता मन

स्कूल के दिनों में एक बात बार-बार कही जाती थी — “अच्छे नंबर लाओ, तभी अच्छा भविष्य बनेगा।” यह वाक्य धीरे-धीरे एक डर बन गया। अब हर परीक्षा सिर्फ ज्ञान का नहीं, पहचान का भी पैमाना बन गई है।

आज की शिक्षा प्रणाली में कौन क्या सीख रहा है, उससे ज़्यादा अहम हो गया है कौन कितना स्कोर कर रहा है। माता-पिता की उम्मीदें, समाज की तुलना, और सोशल मीडिया पर छाए 'टॉपर कल्चर' ने पढ़ाई को ज्ञान की यात्रा से निकालकर एक रेस बना दिया है — जिसमें हारना तो छोड़िए, थमना भी गुनाह मान लिया जाता है।

एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, भारत में हर 5 में से 1 युवा डिप्रेशन (depression) या एंग्ज़ायटी (anxiety) से जूझ रहा है — और इसका बड़ा कारण है अकादमिक प्रेशर।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के डेटा में यह भी दर्ज है कि 15 से 29 वर्ष की आयु में आत्महत्या भारत में मौत का प्रमुख कारण बन चुका है। यह सिर्फ आंकड़े नहीं हैं, यह हमारे सिस्टम की चुप चीख़ें हैं।

बोर्ड परीक्षा, एंट्रेंस टेस्ट, कोचिंग, स्कॉलरशिप, रिजल्ट — हर कदम पर एक सवाल पीछा करता है: “अगर फेल हो गया तो?” 

लेकिन कोई ये नहीं पूछता: “अगर खुद को खो बैठा तो?”

श्रेया, एक 17 साल की छात्रा, जिसने हाल ही में नीट की तैयारी छोड़ दी। वह कहती है, 

"हर दिन ऐसा लगता था जैसे मैं किसी और के सपने जी रही हूं। पढ़ाई से ज़्यादा, मुझे डर सता रहा था — 'क्या मैं सबकी उम्मीदों पर खरी उतर पाऊँगी?'" 

उसने अब मनोविज्ञान में ग्रेजुएशन करने का फैसला लिया है — वो कहती है, "अब मैं अपनी पसंद चुन रही हूं, किसी की परछाई नहीं।"


नौकरी और करियर का दबाव: 'सेटलमेंट' की बेचैनी

कॉलेज की आख़िरी सेमेस्टर में दाख़िल होते ही एक शब्द हर बातचीत में घुस आता है — “प्लेसमेंट हुआ क्या?”

चाहे किसी का सपना हो या न हो, एक अच्छी नौकरी की तस्वीर सबके सामने टंगी होती है — बड़ी कंपनी, अच्छी सैलरी, और एक 'सेटल' जीवन। 

लेकिन इस 'सेटलमेंट' की दौड़ में जो सबसे पहले खो जाता है, वो है आत्म-संतोष।

कई युवा एक ऐसी नौकरी पकड़ लेते हैं जो शायद उनकी रुचियों से मेल नहीं खाती — सिर्फ इसलिए क्योंकि घर की ज़िम्मेदारियाँ, रिश्तेदारों की नज़रें और समाज की अपेक्षाएँ उन्हें समय से पहले ‘बड़े’ बना देती हैं।

9 से 5 की शिफ्ट, फिर ओवरटाइम, और उसके बाद भी 'परफॉर्मेंस रिपोर्ट' की चिंता। 

कभी सोचा है कि हम किस चीज़ में परफॉर्म कर रहे हैं — काम में, या थक जाने में?

एक 26 वर्षीय सॉफ्टवेयर इंजीनियर ने बताया: 

"मैं हर दिन अपनी टीम की डेडलाइन पूरी करता हूं, लेकिन खुद के लिए कोई डेडलाइन तय नहीं कर पाया — कि कब खुश रहना शुरू करूंगा।"

राहुल, 25 वर्षीय एमबीए ग्रेजुएट, एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करता है। वो कहता है,
"मेरे रिज़्यूमे में सब कुछ है — नामी कॉलेज, इंटर्नशिप, बढ़िया पैकेज — पर मैं हर सुबह खुद को मनाने की कोशिश करता हूं कि ये सब मेरे लिए ही है" 

राहुल हर वीकेंड साइकिलिंग करता है — वो कहता है, "कम से कम इन दो घंटों में मैं वही बन जाता हूँ, जो इस रूटीन से पहले था — सिर्फ़ मैं।"

नौकरी के प्रेशर में करियर बर्बाद करते युवा: जब रास्ता दिखना बंद हो जाता है

कुछ लोग करियर बनाते हैं, और कुछ... करियर में ही खो जाते हैं।

आज के बहुत से युवाओं की कहानी यही है — उन्होंने वो काम चुना जो 'सही' माना गया, लेकिन चलते-चलते उन्हें समझ ही नहीं आया कि वो किस ओर जा रहे हैं।

कॉर्पोरेट मीटिंग्स, डेडलाइन्स और ऑफिस की 'ग्लास वॉल्स' के पीछे कई सपने चुपचाप दम तोड़ देते हैं।
बर्नआउट अब सिर्फ एक शब्द नहीं, एक अनुभव बन चुका है।

काम का दबाव, परफॉर्मेंस की चिंता और लगातार 'अपडेटेड' रहने की ज़रूरत ने मानसिक थकावट को सामान्य बना दिया है।

एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में हर तीन में से एक युवा कर्मचारी बर्नआउट सिंड्रोम से प्रभावित है।
लेकिन हम इसे सफलता की कीमत मानकर चुपचाप सहते जाते हैं।

फ़ातिमा, एक ग्राफ़िक डिज़ाइनर, जिसने तीन साल बाद अपनी कॉर्पोरेट जॉब छोड़ दी, बताती है:
"मैंने नोटिस दिया और किसी को नहीं बताया। मुझे सिर्फ एक चीज़ चाहिए थी — नींद। कई महीने बाद पहली बार रात को बिना अलार्म सोई थीं।"

संतुलन का क्या अर्थ है: समय की नहीं, समझ की माँग

जब भी 'संतुलन' की बात होती है, ज़्यादातर लोग इसे टाइम मैनेजमेंट तक सीमित कर देते हैं।

“सुबह उठकर योग कर लो, काम के बाद किताब पढ़ लो, वीकेंड पर घूम लो — बस हो गया संतुलन।” 

लेकिन क्या वाकई ऐसा है?

संतुलन का मतलब है — खुद को सुनना, अपनी सीमाओं को समझना, और ज़रूरत पड़ने पर 'ना' कहने का साहस रखना।

कभी-कभी संतुलन का पहला क़दम होता है — रुक जाना।

यह कोई एक दिन में पाई जाने वाली स्थिति नहीं है। यह एक प्रक्रिया है — जिसमें गिरना, थमना और फिर उठना शामिल है।

और इसका मूल है — ईमानदारी, अपने साथ।

समाधान और सुझाव: थोड़ा ठहर जाना (Break) भी आगे बढ़ना होता है

1. आत्मनिरीक्षण की आदत डालिए 

हर दिन कुछ मिनट चुपचाप बैठकर खुद से एक सवाल पूछिए — “मैं कैसा महसूस कर रहा हूँ?” 

यह सवाल छोटा है, लेकिन जवाब अक्सर ज़िंदगी बदल देते हैं।

2. काम से दूरी भी ज़रूरी है 

“वर्क इज़ वर्शिप” तो ठीक है, लेकिन “वर्क इज़ एवरीथिंग” नहीं होना चाहिए। 

हर हफ़्ते एक दिन ऐसा चुनिए जिसमें न आप पढ़ाई की बात करें, न काम की — सिर्फ वो करें जिससे आपका मन हल्का हो।

3. परफेक्शन की दौड़ से बाहर निकलिए 

हर चीज़ में बेस्ट होना ज़रूरी नहीं। 

कभी-कभी ‘ठीक-ठाक’ होना ही आपको उस मानसिक शांति की ओर ले जाता है, जो ‘सुपरस्टार’ बनने में खो जाती है।


4. प्रोफेशनल मदद लेने से न हिचकें 

मानसिक स्वास्थ्य को लेकर शर्म अब भी हमारे समाज में है। 

लेकिन काउंसलिंग या थैरेपी लेने का मतलब यह नहीं कि आप कमजोर हैं — इसका मतलब है कि आप खुद को बचा रहे हैं।

5. जुनून और जीवन को साथ चलाना सीखें 

ज़रूरी नहीं कि आपका पैशन ही आपकी नौकरी बने। 

लेकिन इतना ज़रूरी है कि आप अपने पैशन को कभी मरने न दें — चाहे वो पेंटिंग हो, लेखन हो, संगीत हो या बस सुकून में बैठकर चाय पीना।

6. तुलना से दूरी बनाइए 

सोशल मीडिया पर दूसरों की सफलता देखकर खुद को कम आंकना आसान है। 

लेकिन याद रखिए — वहाँ आपको 'स्टोरी' दिखती है, 'संघर्ष' नहीं।

हर छोटा क़दम, उस बड़े बदलाव की शुरुआत बन सकता है जिसकी हमें ज़रूरत है — और जो हम डिज़र्व भी करते हैं।

खुद से मिलने का वक़्त

ज़िंदगी में संतुलन कोई एक मंज़िल नहीं है — ये एक रिश्ता है, जो हमें खुद से जोड़ता है।

अगर आज तुम खुद से थोड़ा और जुड़ पाओ, तो शायद कल ये दुनिया तुम्हें सिर्फ एक प्रोफेशनल नहीं, एक इंसान की तरह देखेगी।

तो अगली बार जब तुम खुद से पूछो, 

"क्या मैं पीछे छूट रहा हूँ?" 

तो जवाब में एक सवाल रखना — 

"क्या मैं खुद के साथ चल भी रहा हूँ?"

क्योंकि संतुलन वहीं शुरू होता है — जहां हम अपने ही साथ खड़े होते हैं। 

नबीला मुल्ला

भोपाल, मध्यप्रदेश