प्रत्येक वर्ष 1 मई को हम सब मज़दूर दिवस मनाते हैं, इस दिन मज़दूरों के अधिकारों को लेकर काफी लंबी बातचीत होती है, लेकिन वास्तव में मज़दूरों की स्थिति में कोई फर्क़ नहीं महसूस किया जाता है। बल्कि साल दर साल मज़दूरों की स्थिति और भी दयनीय होती जा रही है और देश में गरीबी बढ़ती जा रही है। इस समय मज़दूरों की स्थिति क्या है विशेषरुप से महिला मज़दूरों की। इस बात को जानने और समझने के लिए आभा संपादकीय मंडल सदस्य सुमैय्या मरयम ने श्रीमती सुचारिता से बात की। सुचारिता समाज सेविका है और पुरुगामी महिला संगठन दिल्ली की संचालिका हैं। वह 1980 से महिला अधिकारों के लिए सक्रिय रुप से समाज में काम कर रही हैं। इसके अतिरिक्त वह शोषण, हिंसा और अन्याय के खिलाफ भी समाज को जागरुक करने का निरंतर प्रयास कर रही हैं। पेश है उनसे बातचीत के कुछ अंशः
सवालः मज़दूरों का महत्व क्या है?
जवाबः हमारा भारतीय समाज जो है और जैसे लगभग दुनिया के सारे एडवांस देश हैं वे सभी कैपिटलिस्ट सोसायटी हैं जहां उत्पादन के जो बड़े बड़े साधन हैं इनके मालिक कैपिटलिस्ट हैं, और समय के साथ जैसे जैसे कैपिटलिस्ट बड़े होते हैं वे बहुत सारे सेक्टर के उत्पादन के साधनों को कंट्रोल करते हैं। इसे हम मोनोपॉली कैपटलिज़म भी बोलते हैं। जैसे कि हम इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी को देख लें, हमारे देश को मिलाकर सारी दुनिया में कुल छह आठ कंपनियां है जो इसे पूरा कंट्रोल करती हैं, इसी तरह डिफेंस, एयरलायंस इन सभी जगह इसी तरह चल रहा है। तो इस प्रकार जो कैपटलिस्ट हैं, जो उत्पादन स्त्रोत के मालिक हैं वे खुद काम नहीं करते हैं बल्कि वे पूंजी निवेश करते हैं, और उससे बनाया जाता है बहुत कुछ, इसमें कृषि भी शामिल है। लेकिन इस सिस्टम में उत्पादन करने वाला, मेहनत करने वाला मज़दूर होता है। वह अपना श्रम बेचता है, यह श्रम मानसिक भी हो सकता है, शारीरिक भी हो सकता है। वह अपने वेतन के लिए काम करता है और वह मालिक नहीं बल्कि उत्पादन का साधन है। इसलिए आप समझ सकते हैं कि मज़दूर एक महत्वपूर्ण हिस्सा है हमारे समाज का।
सवालः महिला मज़दूर और पुरुष मज़दूर का हमारे समाज में क्या अनुपात है?
जवाबः हमारे समाज में काम करने की जो आयु है वह 15 से 50 साल के बीच की है। इससे कम आयु के लोगों से काम कराना बाल मज़दूरी की श्रेणी में आएगा जो हमारे देश में कानूनी रुप से अपराध है। हालांकि वह भी होता है लेकिन औपचारिक रुप से नहीं। और पचास वर्ष से ऊपर का वैकल्पिक है। कुछ लोग 50 वर्ष से अधिक आयु में भी काम करते मिल जाएंगे। लेकिन जो महत्वपूर्ण आयु मानी जाती है वह है 15 से 50 के बीच की। इसके अंदर अगर हम देखें तो आमतौर पर मज़दूर सहभागिता है पुरुष और महिला का वह 10 में से 1.8 है। यानि 18 प्रतिशत है, सौ में से 18। बाकी जो 82 प्रतिशत मज़दूर तबका है वह बेरोज़गार है, उन्हें फुल टाइम रोज़गार नहीं मिलता, उनसे कभी कभी काम लिया जाता है, या कुछ घंटे काम का वेतन उन्हें मिल जाता है। इसमें अगर हम महिलाओं को देखें तो हर 10 में से 7 महिला बेरोजगार हैं और पुरुष में हर 10 में से 3 बेरोज़गार हैं।
सवालः हमारे वर्कप्लेस में जो महिलाएं हैं उनकी क्या स्थिति है? क्या समस्याएं हैं?
जवाबः सबसे पहले हमें यह समझना होगा कि यह मई दिवस जो हैं वह मज़दूरों का संघर्ष है जो 100 साल पहले शुरु हुआ। मज़दूरों के इस संघर्ष के बदले पूंजीवाद या सामंतवाद ने महिलाओं को पुरुष मज़दूरों की तुलना में काम पर रखना शुरु कर दिया और इस प्रकार फैक्ट्रियों में उनकी भागीदारी होने लगी। लेकिन उनकी आर्थिक भागीदारी बराबरी की नहीं रखी गई बल्कि उन्हें न्यूनतम मज़दूरी देकर उनका शोषण किया जाने लगा। इस प्रकार पूंजीवाद ने महिलाओं को उनकी समस्याओं से मुक्ति नहीं दिलाई बल्कि उन्हें सस्ते श्रम के रुप में शोषित किया जाने लगा। यही पूंजीवाद मुनाफा आज भी कायम है जिसकी वजह से आज भी महिलाओं पर एक बड़ा बोझ है। हम समझते हैं कि महिलाओं को जो अधिकार दिया जाना चाहिए वह आज भी महिलाओं को नहीं मिला और इसके पीछे पूंजीवादी सोच काम करती है। इसके अलावा समाज में ऐसा माहौल बनाया गया है कि महिलाओं के लिए यात्रा करना, शिक्षा हासिल करने के लिए दूर जाना यह सब सुरक्षित नहीं है। इस कारण भी महिला भागीदारी कम दिखाई देती है।
सवालः महिला मज़दूरों की सुरक्षा के लिए क्या कानून और क्या उपाय मौजूद हैं?
जवाबः मज़दूरों के अधिकारों के लिए विशेषरुप से महिला मज़दूरों के लिए कई कानून बने हुए हैं। यह कानून इसलिए नहीं बने कि पूंजीपति यह चाहते थे, बल्कि वर्षों से मज़दूरों ने यह संघर्ष किए हैं कि हमें यह गारण्टी चाहिए। 2018 से सरकार ने जो सारे नियम श्रम कानून के नाम से जाने जाते थे उन्हें चार श्रम संविदा में परिवर्तित कर दिया है जिसको आज तक कोडीफाइड नहीं किया गया। विपक्ष के विरोध के कारण आज भी इसे सरकार पारित नहीं कर सकी है लेकिन कई राज्यों में अनौपचारिक रुप से इसे लागू कर दिया गया। जैसे कि कानून है कि कॉन्ट्रैक्ट लेबर एक्ट जिसके तहत जो आपके पास परमानेंट नेचर के वर्कर हैं उनसे आप कॉन्ट्रैक्ट लेबर का काम नहीं ले सकते। लेकिन उसके बावजूद कॉन्ट्रैक्ट बेस्ड नौकरी पर रखकर धड़ल्ले से महिलाओं का शोषण होता है। हमने दिल्ली के सरकारी अस्पतालों में खुद महिला मज़दूरों से बातचीत की जिसमें पता चला कि नौकरी पाने के लिए कॉन्ट्रैक्टर को 50 हज़ार रुपए तक देने पड़ते हैं और फिर कॉन्ट्रैक्ट रिन्यू करने के लिए कॉन्ट्रैक्टर सेक्शुअल डिमांड करता है। जबकि सरकारी अस्पताल कॉन्ट्रैक्ट बेस्ड नौकरी के अंतर्गत नहीं आते हैं। इसी प्रकार रेलवे, रोडवेज़ इत्यादि जगहों पर भी महिला मज़दूरों का शोषण होता है। सबसे बड़ा उदाहरण महिला टीचर्स हैं। सरकारी स्कूलों में भी उन्हें कॉन्ट्रैक्ट बेस्ड पर रखा जाता है और प्राइवेट में भी जहां उनका शोषण होता है। इसी प्रकार लेबर कोड में रात्रि पाली का काम महिलाओं के लिए लीगल बना दिया गया जबकि पहले यह अवैध था।
सवालः जो महिला मज़दूरों के लिए कानून बने है उनसे कोई सुधार आया?
जवाबः कुछ भी सुधार नहीं आया। निर्भया कांड के बाद कानून बना था कि हर सेक्टर में वर्कप्लेस पर एक कमेटी बनेगी जो महिला वर्कर की कपंलेन पर उनकी मदद करेगी और उनकी सुरक्षा व उनका सहयोग करेगी। लेकिन आज भी जनर्लिज्म एवं अन्य क्षेत्रों के वर्कप्लेस पर यह कमेटी आपको नहीं मिलेगी। ना ही वर्कप्लेस पर कोई सुधार आया है और ना ही समाज की सोच में कोई सुधार आया।
सवालः कानून से अलग हटकर मज़दूरों की सुरक्षा के क्या उपाय होने चाहिए?
जवाबः जो कानूनों के लिए हमने संघर्ष किए हैं, उसके बावजूद जो जो समस्याएं आ रही हैं उन सबके लिए संघर्ष करना बहुत ज़रुरी है। महिला मज़दूरों के लिए और पुरुष व महिला दोनों के लिए संगठित होना बहुत ज़रुरी है। उनके लिए ऐसे संगठन होने चाहिए जहां वे अपनी समस्या रख सकें। बिना संगठन और एकता के हम बदलाव नहीं ला सकते। इसके बाद जो कानून बने हैं वे लागू क्यों नहीं हो रहे इस पर सवाल होना चाहिए। हमारे समाज का दुर्भाग्य है कि हमारे यहां न्याय व्यवस्था समान नहीं है इसलिए सबके लिए समान न्याय व्यवस्था होनी चाहिए। इस स्थिति को देखते हुए हमें मांग करनी चाहिए कि जो कानून का उल्लंघन करता है उसको सज़ा होना चाहिए। आज हम देखते हैं कि मज़दूर काम कर रहे हैं और उनके लिए फायर सेफ्टी का कोई दरवाज़ा नहीं होता, जब वे झुलस कर मर जाते हैं तो इसके ज़िम्मेदार लोगों को कोई सज़ा नहीं होती। आज लेबर कोड में फैक्ट्री मालिक को सेल्फ इंस्पेक्शन का अधिकार मिला हुआ है। सरकार की ओर से कोई इंस्पेक्टर भी नहीं आता मज़दूरों की सुरक्षा को देखने के लिए। ऐसे में मांग होनी चाहिए कि कड़े से कड़े कानून बने जो मालिकों को सज़ा दे सकें। इसके साथ हमें यह मांग करनी होगी कि जो हमारे निर्वाचित प्रतिनिधि हैं, जो हमारे विधायक और सांसद हैं वह जिस क्षेत्र से चुनकर आए हैं उसके प्रति वे जवाबदेह हों। हमारे पास ऐसा कोई अधिकार होना चाहिए। जो कानून बनाए जाते हैं, उसे बनाने का अधिकार आम जनता का होना चाहिए। इस समय ऐसा अधिकार हमारे पास नहीं है। हम इस समाज के निर्माता हैं इसलिए कानून बनाने का अधिकार हमारे पास भी होना चाहिए।
सवालः असंगठित सेक्टर को इन कानूनों से कोई फायदा मिलता है या नहीं?
जवाबः 90 प्रतिशत मज़दूर असंगठित सेक्टर में काम करते हैं। NBCC इतना बड़ा सेक्टर है जहां सब कॉन्ट्रैक्ट बेस्ड पर काम करता है। हमने रेलवे में जो लोको पॉयलट हैं उनसे बात की तो पता चला कि वह लंबी दूरी की ट्रेन लेकर जाती हैं, कई कई घंटे उन्हें यात्रा करनी पड़ती है लेकिन उनके पास टॉयलेट सुविधा नहीं है। जब किसी स्टेशन पर ट्रेन रुकती है तब जाकर वह टॉयलेट यूज़ कर पाती हैं। इस प्रकार की दयनीय स्थिति है कॉन्ट्रैक्ट बेस्ट कर्मचारियों की।
सवालः अंत में आप क्या मैसेज देना चाहेंगी?
जवाबः हम सब महिला श्रमिकों को पुरुष श्रमिकों के साथ मिलकर यूनियन बनानी चाहिए, और जो अंसगठित क्षेत्र हैं वहां पर सबसे ज़्यादा संगठित होने की जरुरत है। हमारा विरोध करने का जो अधिकार है उस पर भी बहुत पाबंदी लगी है बल्कि यूं कहें कि उसे समाप्त ही कर दिया गया है। इसलिए हमें विरोध करने के अधिकार को भी वापस पाने के लिए संघर्ष करना होगा।