वक़्फ़ संशोधन अधिनियम 2025

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By Aabha admin May 01, 2025

मुसलमानों की स्वायत्ता और पहचान पर हमला

देश भर में मुस्लिम नेताओं, मुस्लिम सांसदों और सामाजिक संगठनों के कड़े विरोध के बावजूद, 3 अप्रैल 2025 को लोकसभा ने वक़्फ़ संशोधन विधेयक पारित कर दिया। कहने को तो यह बिल "सुधार" और "पारदर्शिता" के नाम पर लाया गया है, लेकिन वास्तव में यह मुसलमानों के धार्मिक और सामाजिक संस्थानों को कमज़ोर करने की बड़ी साज़िश है। इसमें वक़्फ़ संपत्तियों के प्रबंधन, पंजीकरण और क़ानूनी सुरक्षा में कई बड़े बदलाव किए गए हैं, जो धार्मिक आज़ादी और संवैधानिक सुरक्षा दोनों पर सीधा हमला है।

यह सिर्फ़ एक क़ानूनी दस्तावेज़ नहीं है, बल्कि एक विचारधारा पर आधारित योजना का हिस्सा है—जिसका मक़सद मुस्लिम समुदाय की पहचान, आज़ादी और विरासत पर सरकार का और ज़्यादा नियंत्रण स्थापित करना है।

वक़्फ़ संस्थान: एक पवित्र अमानत और संवैधानिक अधिकार

वक़्फ़ (धार्मिक या समाज सेवा के लिए दी गई संपत्ति) इस्लामी क़ानून का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। भारतीय संविधान ने अल्पसंख्यकों को धार्मिक और सांस्कृतिक आज़ादी दी है जिसका उल्लेख अनुच्छेद 25 और 26 में है। खासतौर पर अनुच्छेद 26(b) हर धार्मिक समूह को अपने धार्मिक मामलों को खुद चलाने का अधिकार देता है। इस नज़रिये से, वक़्फ़ केवल एक धार्मिक संस्थान नहीं, बल्कि एक संवैधानिक अधिकार है।

नए कानून से उपजी चिंताएँ: अफसरशाही का वर्चस्व

इस अधिनियम में कई ऐसे प्रावधान हैं जो वक़्फ़ संपत्तियों की क़ानूनी स्थिति और धार्मिक स्वरूप को नुकसान पहुँचाते हैं:

  1. वक़्फ़ बोर्ड में ग़ैर-मुस्लिम सदस्य अनिवार्य करना

इस क़ानून में राज्य वक़्फ़ बोर्ड में ग़ैर-मुस्लिमों की मौजूदगी अनिवार्य की गई है। यह क़दम संविधान द्वारा दी गई धार्मिक आज़ादी के बुनियादी सिद्धांतों का उल्लंघन है। जबकि मंदिरों, गुरुद्वारों और चर्चों में ऐसी कोई बाध्यता नहीं है, फिर मुस्लिम संस्थानों में यह घुसपेठ क्यों?

  1. सर्वेक्षण का अधिकार कलेक्टर को देना

अब वक़्फ़ संपत्तियों का सर्वेक्षण वक़्फ़ बोर्ड के बजाय ज़िला कलेक्टर की निगरानी में होगा। इससे न सिर्फ़ वक़्फ़ बोर्ड के सर्वेयरों की विशेषज्ञता को नकारा जाएगा, ज़मीनों की ग़लत पहचान या उन्हें ग़ैर वक़्फ़ घोषित किए जाने का ख़तरा भी पैदा हो जाएगा, विशेषतः राजनीतिक रूप से संवेदनशील इलाकों में।

  1. वक़्फ़ अधिनियम-1995 की धारा 107 को हटाया जाना

इस धारा को हटाया जाना एक बड़ा क़ानूनी प्रहार है। पहले वक़्फ़ संपत्तियों को 'परिसीमा अधिनियम' (Limitation Act) से छूट मिली हुई थी, यानी कोई भी व्यक्ति वक़्फ़ ज़मीन पर लंबे समय तक कब्ज़ा करके उस पर क़ानूनी तौर पर हक़ का दावा नहीं कर सकता था। अब यह सुरक्षा ख़त्म कर दी गई है, जिससे लंबे समय के हज़ारों क़ब्ज़ों को वैध बनाया जा सकता है।

  1. छह महीने में संपत्तियों का पंजीकरण कराने की बाध्यता

इस नए क़ानून के अनुसार, सभी वक़्फ़ संपत्तियों को अनिवार्य रूप से 6 महीनों के भीतर रजिस्टर कराना होगा, वरना उन्हें क़ानूनी मान्यता नहीं मिलेगी। यह प्रावधान नितांत अव्यावहारिक है, क्योंकि वक़्फ़ संपत्तियों की संख्या बहुत बड़ी है और रिकॉर्ड के रख रखाव में पहले से ही कई गड़बड़ियाँ हैं जिन्हें ठीक करने के लिए काफ़ी समय चाहिए। यह वास्तव में एक "क़ानूनी जाल" है, जिसे "प्रशासनिक सुधार" का नाम दिया गया है।

संवैधानिक और लोकतांत्रिक सवाल

इस अधिनियम के कई प्रावधान सीधे-सीधे संविधान के ख़िलाफ़ जाते हैं:

  • अनुच्छेद 14 – क़ानून के समक्ष समानता (मुस्लिम संस्थानों को चुन कर निशाना बनाना)

  • अनुच्छेद 25 – धर्म पर आचरण की स्वतंत्रता

  • अनुच्छेद 26 – धार्मिक संस्थाओं की स्वायत्तता

  • अनुच्छेद 30 – अल्पसंख्यकों को अपने संस्थानों को चलाने का अधिकार

भारतीय संविधान की कभी भी यह मंशा नहीं थी कि बहुसंख्यकों की सरकार अल्पसंख्यकों के धार्मिक संस्थानों पर नियंत्रण रखे। लेकिन यह नया क़ानून धर्मनिरपेक्ष शासन के संतुलन को बिगाड़ कर उसे एक निगरानी और नियंत्रण की व्यवस्था बना देता है जो कि सीधे अल्पसंख्यकों की धार्मिक आज़ादी हनन है।

केंद्रीकरण की आहट: मुस्लिम समुदाय की चिंताएँ

संविधान से जुड़े क़ानूनी पहलुओं पर विशेषज्ञों में बहस जारी है, लेकिन वक़्फ़ संशोधन अधिनियम 2025 का असर अब ज़मीनी स्तर पर साफ़ दिखाई देने लगा है। देशभर में वक़्फ़ संपत्तियों से जुड़े लोगों की ज़िंदगी और विरासत ख़तरे में पड़ गई है।

तमिलनाडु में रहने वाले लगभग 50 लाख मुसलमानों को इस क़ानून से गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। 7 अप्रैल 2025 को डीएमके पार्टी द्वारा सुप्रीम कोर्ट में याचिका में कहा कि चेन्नई के मदरसे, जो ग़रीब बच्चों को शिक्षा देते हैं और वक़्फ़ फंड पर निर्भर हैं, अब नई "डिजिटाइजेशन" की शर्तों और कलेक्टरों की निगरानी के कारण संकट में आ गए हैं।

5 अप्रैल को द हिंदू को एक मदरसा शिक्षक ने बताया:

"हम इस मदरसे को दशकों से चला रहे हैं, उन बच्चों को पढ़ा रहे हैं जो प्राइवेट स्कूल का ख़र्च नहीं उठा सकते। अब हमें कहा जा रहा है कि हमारे पुराने रिकॉर्ड काफ़ी नहीं हैं, हम पीढ़ियों से जिस ज़मीन पर हैं, उसका सबूत कहाँ से दें?"

डीएमके ने विधानसभा में प्रस्ताव पारित कर इस अधिनियम को वापस लेने की मांग की है और कहा है कि इससे मुस्लिम संस्थानों की स्वायत्तता ख़तरे में पड़ गई है।

हैदराबाद में, ऐतिहासिक क़ुतुब शाही मक़बरे, जिनकी देखरेख आंशिक रूप से वक़्फ़ फंड से की जाती है, अब एक नये ख़तरे की ज़द में हैं। द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार, देश भर में 8.72 लाख वक़्फ़ संपत्तियाँ अब अनिवार्य डिजिटाइजेशन की प्रक्रिया से गुज़रेंगी।

7 अप्रैल को इंडिया टुडे से एक केयरटेकर ने कहा:

"हम इस जगह को सदियों से संभाल रहे हैं, लेकिन अब ऐसे काग़ज़ मांगे जा रहे हैं जो पहले कभी ज़रूरी नहीं थे। अगर हम समय पर पेश नहीं कर सके, तो न जाने कौन इसका मालिक बनेगा?" यह "केंद्रीकरण" की ओर एक और क़दम है, जो अवैध कब्ज़ों या ग़लत प्रबंधन की आशंका को जन्म देता है।

झारखंड के जामताड़ा में 8 अप्रैल 2025 को मुस्लिम समुदाय ने ज़बरदस्त प्रदर्शन किया। हिंदुस्तान अख़बार की रिपोर्ट के मुताबिक़, सैकड़ों लोगों ने गांधी मैदान से उपखंड कार्यालय तक मार्च किया और डिप्टी कमिश्नर को ज्ञापन सौंपा। एक प्रदर्शनकारी ने कहा:"हमारी दरगाहें, हमारे अनाथालय—ये हमारे अपने हैं। इनके भविष्य का फैसला कोई कलेक्टर क्यों करेगा?" यह प्रदर्शन पूरे देश में फैली इस चिंता को उजागर करता है कि यह क़ानून समुदायों की अपनी संस्थाओं से उनका रिश्ता तोड़ रहा है।

उपरोक्त उदाहरणों से ज़ाहिर है कि यह चिंता सारे देश के अल्पसंख्यकों और इंसाफ़ पसंद लोगों की है यह एक ढांचागत हमला है। यह इससे होने वाले गंभीर परिणाम हैं जो अब मुस्लिम समुदाय से एकजुट हो कर रणनीतिक और संवैधानिक प्रतिक्रिया की मांग करते हैं।

बहुसंख्यकवादी सोच और केंद्रीकरण की छाया

वक़्फ़ संशोधन अधिनियम कोई एकाकी घटना नहीं है। यह एक बड़ी राजनीतिक और वैचारिक रणनीति का हिस्सा है। पिछले कुछ वर्षों में हमने देखा कि:

  • अनुच्छेद 370 को हटाया गया।

  • बुलडोज़र राजनीति, जो ख़ास मुस्लिम इलाक़ों पर केंद्रित रही।

  • धार्मिक पहनावे और आचरण आपराधीकरण कर दिया गया।

  • CAA-NRC की बहस, जो नागरिकता को लेकर डर पैदा करती है।

  • अल्पसंख्यक छात्रवृत्तियों में कटौती।

  • चर्च की ज़मीनों की समीक्षा का प्रस्ताव।

उपरोक्त सभी क़दमों में एक बात समान है: अल्पसंख्यकों की आज़ादी, इज़्ज़त और स्वायत्तता को सीमित करना। अब वक़्फ़ संपत्तियों को भी इसी वैचारिक घेरे में लाना कोई संयोग नहीं है—यह एक सोची समझी योजना का हिस्सा है।

“यह दीवार अगर गिरी, तो सिर्फ़ पत्थर नहीं गिरेंगे—हमारी आज़ादी भी ढह जाएगी।”— भोपाल के एक बुज़ुर्ग इमाम की व्यथा

मुसलमानों का रुख़ अब क्या होना चाहिए?

वक़्फ़ संशोधन अधिनियम 2025, व्यापक विरोध के बावजूद, मुस्लिम समुदाय की संस्थागत स्वायत्तता को चुनौती देता हुआ पास हो गया। इस पर केवल दुखी या नाराज़ होना काफ़ी नहीं—इतिहास हमें सिखाता है कि ऐसे अवसरों पर मज़बूती से खड़े होना ज़रूरी है। जैसे ब्रिटिश राज में वक़्फ़ पर हमले हुए, और आज़ादी के बाद फिर से ये संस्थान खड़े किए गए। आज फिर एक रचनात्मक, रणनीतिक और एकजुट आंदोलन की ज़रूरत है।

1. क़ानूनी लड़ाई

इस क़ानून के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों में याचिकाएं डाली जाने लगी हैं। अब समय है कि एक राष्ट्रीय क़ानूनी टास्क फोर्स बने, जिसमें वरिष्ठ वकील, वक़्फ़ बोर्ड सदस्य, और मुस्लिम संगठनों के प्रतिनिधि मिलकर एक साथ मुक़द्दमों की पैरवी करें। इसमें धारा 107 को हटाना, ग़ैर-मुस्लिमों को वक़्फ़ बोर्ड में शामिल करना, और छह महीने में रजिस्ट्रेशन की ज़बरदस्ती जैसे प्रावधान, अनुच्छेद 25 से 30 तक के संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं। अतः मुक़द्दमों के लिए सशक्त आधार हैं।

2. दस्तावेज़ीकरण और डिजिटलीकरण

अपर्याप्त दस्तावेज़ वक़्फ़ संपत्तियों की सबसे बड़ी कमज़ोरी हैं। अब ज़रूरत है कि युवाओं और कंप्यूटर साक्षरों की मदद से, स्थानीय स्तर पर दस्तावेज़ों का सर्वे और डिजिटल रिकॉर्ड तैयार किया जाए। जमाअत-ए-इस्लामी हिन्द, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, इमारत-ए-शरीआ, APCR जैसे संगठन मिलकर एक केंद्रीय डेटा पोर्टल पर इन रिकॉर्ड्स को संजोने में मदद करें।

3. जन-जागरूकता और राजनीतिक दबाव

मीडिया अभियानों, सोशल मीडिया, और सेमिनारों के ज़रिए इस अधिनियम से पड़ने वाले व्यापक दुष्प्रभाव से जनता को अवगत कराया जाए। मुस्लिम सांसद, धर्मनिरपेक्ष नेता और समाजिक कार्यकर्ता संसद में, अदालतों में और जन मंचों पर इसे मुद्दा बनाएं।

राष्ट्रपति, न्यायपालिका और अल्पसंख्यक आयोगों को आँकड़ों सहित ज्ञापन सौंपे जाएं।

4. सामुदायिक एकता और साझा संघर्ष

मुस्लिम फिरक़ों और संगठनों में एकता समय की ज़रूरत है। धार्मिक, सामाजिक, और राजनीतिक संस्थाएं मिलकर स्थानीय समितियाँ, शांतिपूर्ण आंदोलन की रूपरेखा, और साझा रणनीति बनाएं। दलित, आदिवासी और नागरिक अधिकार समूहों को भी साथ लिया जाए, जिससे आवाज़ और मजबूत हो।

5. आंतरिक सुधार और पारदर्शिता

वक़्फ़ बोर्डों को भी ख़ुद में सुधार लाना होगा, भ्रष्टाचार पर पूरी तरह रोक, पारदर्शिता और जवाबदेही की व्यवस्था लानी होगी। निगरानी समितियाँ बनाई जाएं जो क़ानून के दुरुपयोग पर नज़र रखें और ज़रूरत पड़ने पर निगरानी एजेंसियों तक शिकायत पहुँचाएं।

6. वैश्विक मंचों पर उठाना

इस मुद्दे को OIC और मानवाधिकार संगठनों जैसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाया जा सकता है, ताकि वैश्विक मुस्लिम समुदाय से नैतिक समर्थन और एकजुटता मिले।

आगे क्या?

वक़्फ़ संशोधन अधिनियम 2025 एक गंभीर आघात है—लेकिन साथ ही एक चेतावनी भी है। यह वह घड़ी है, जब हमें फिर से संगठित होना है, सुधार करना है, और साझा रूप से अन्याय का विरोध करना है। जब तक हम क़ानूनी लड़ाई, राजनीतिक दबाव, ज़मीनी आंदोलन और आंतरिक जवाबदेही को एक साथ जोड़कर एकता को अपनी ताक़त नहीं बनाते, तब तक हम अपने वक़्फ़ की हिफ़ाज़त नहीं कर सकते हैं, और न ही भारत के लोकतांत्रिक ढांचे में अपना वाजिब और गरिमापूर्ण स्थान बहाल कर सकते हैं। एक बनें, नेक बनें, जागरूक हों, संघर्ष करें और अल्लाह से अपनी ग़लतियों और कोताहियों की माफ़ी चाहते हुए ज़ुल्म से निजात की दुआ करें।


डॉ मुहम्मद इकबाल सिद्दीकी

सहायक सचिव, जमाअत-ए-इस्लामी हिंद