सिंतबर 2024 में वर्किंग वूमन एना सेबेस्टियन की काम के दबाव के कारण होने वाली मौत और कोलकाता के आरजी कर अस्पताल की डॉक्टर के साथ काम के दौरान गैंगरेप और उसके बाद बेरहम हत्या ने ना केवल पूरे देश को हिला दिया बल्कि वर्क प्लेस की सेफ्टी एंड सिक्योरिटी पर प्रश्न खड़े कर दिए। इसके साथ ही यह सवाल भी पैदा होता है कि संगठित क्षेत्र में उच्च शिक्षा और वर्किंग वीमन के साथ इस प्रकार की स्थिति पेश आ रही है तो हमारे देश में जो असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाली महिलाओं की क्या स्थिति होगी? एक ऐसे दौर में जो कि बहुत रचनात्मक दौर माना जाता है और इंसान तरक्की की ओर बढ़ता जा रहा है इस प्रकार की घटनाएं पेश आना हमारी व्यवस्था पर कई प्रश्नचिन्ह लगाता है। यह इस बात का भी संकेत देता है कि समाज का माइंडसेट अभी भी अपने स्टीरियोटाइप सोच से नहीं उभरा है। पैसा, मेहनत अर्थव्यवस्था के दो पहिए हैं। पैसे के बल पर हमारे पूंजीपतियों में यह सोच विकसित हो गई है कि पैसे के दम पर मेहनत करने वालों को खरीदा जा सकता है तो फिर कोई नियम और कानून की पाबंदी करना ज़रुरी नहीं। हर साल एक मई को मनाया जाने वाला मज़दूर दिवस हम को प्रत्येक वर्ष एक ऐसी जद्दोजहद की याद दिलाता है कि मज़दूरों के अधिकार के लिए 1886 में मज़दूरों को अपने अधिकार प्राप्त करने के लिए मुहिम चलानी पड़ी। अमेरिका के शहर शिकागो से शुरु होने वाले इस संघर्ष ने जहां मज़दूरों और पूजींपतियों के बीच तनाव को बढ़ाया वहीं सरकारों को इन दोनों के बीच अनुशासन लाने के लिए कानून बनाने और उसको लागू करने के लिए तैयार किया और फिर दुनियाभर में मजदूर युनियन का गठन हुआ जो मजदूरों को अधिकार दिलाने और उनके सुरक्षा के लिए मैदान में आयीं और इस प्रकार हर साल मज़दूर दिवस की परंपरा चल पड़ी।
हमारे देश में कई श्रम कानून हैं जो महिला मजदूरों को सुरक्षा प्रदान करते हैं। जिस में फैक्ट्रीज़ एक्ट 1948, मैटर्निटी बेनिफिट एक्ट 1961 और समान काम की समान मज़दूरी एक्ट 1976 शामिल हैं। 2013 में काम के स्थान पर महिलाओं की सुरक्षा को यकीनी बनाने और यौन शोषण की रोकथाम के लिए The Sexual Harassment of women at workplace Act बना। कानूनी बुनियादों पर इन कानूनों में महिलाओं के लिए एवं गर्भवती महिलाओं के लिए कई सुविधाएं मुहैया कराई गई। वर्तमान समय में जहां इंसानों को बहुत सारी सुविधाएं उपलब्ध हैं वहीं कई समस्याओं ने भी जन्म लिया है। कारपोरेट कल्चर एक प्रकार का टॉक्सिक वर्क कल्चर है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार काम का दबाव इक्कीसवीं सदी का वबाई मर्ज़ बन गया है। इस कल्चर ने काम करने और पैसे देने वालों के बीच एक प्रकार की नकरात्मक शक्ल धारण कर ली है। प्रतिभा की कमी, आत्मविश्वास की कमी, असमानता और अव्यवहारिक रवैयों ने आपसी सम्मान को समाप्त कर दिया है। इस कल्चर ने मज़दूरों की खुशहाली, हौसले और उनकी उत्पादक क्षमता को प्रभावित किया है जिसके परिणामस्वरुप वे तनाव व एंग्ज़ायटी का शिकार हो जाते है। अमेरिकन सॉइकोलॉजिस्ट एसोसिएशन के अनुसार 75 प्रतिशद महिलाएं काम के दबाव के कारण तनाव का शिकार हो जाती हैं।
काम की जगह पर लिंगभेद एक कभी ना समाप्त होने वाली चिंताजनक स्थिति है। एक रिसर्च के अनुसार 10 में से एक महिला अपने वर्कप्लेस पर अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित है। 17 प्रतिशत कस्टमर और क्लाइंट उनका शोषण करते हैं। 10 में से एक को उनके कलीग द्वारा प्रताड़ित किया जाता हैं। अच्छे पद पर काम करने वाली महिलाओं में एक चौथाई महिलाएं असहज व अभद्र टिप्पणी के द्वारा शोषित की जाती हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार शारीरिक उत्पीड़न झेलने वाली महिलाओं में 2018 से 2022 के बीच लगातार बढ़ोत्तरी हुई है। जान, इज़्ज़त व आबरू को बचाने के लिए परेशान महिलाओं से हम कैसे यह उम्मीद कर सकते हैं कि वे पूरी मेहनत व लगन से काम करेंगी वह भी ऐसी स्थिति में जब वे लगातार मानसिक उत्पीड़न का शिकार हो रही हों। काम की जगह पर महिलाओं को शोषण से बचाने के लिए जो कानून बने हैं उनको लागू करने और कानून को तोड़ने वालों का जवाबदेह होना ज़रुरी है। फैक्ट्री एक्ट 1948 ने काम करने वाली महिलाओं के समय और उनके मेहनताने, और काम के घंटे निर्धारित किए हैं। समान कार्य के लिए समान मजदूरी का कानून भी मौजूद है, जो कि सही तरीके से लागू हो जाए तो बहुत सारी समस्याओं को दूर कर सकता है।
भारत में 625 मिलियन लोग सेवा के क्षेत्र से जुड़े हुए हैं जिनमें 215 मिलियन महिलाएं है। असंगठित क्षेत्र में महिलाओं का अनुपात संगठित क्षेत्र के मुकाबले में ज़्यादा है और उसी सेक्टर में लेबर एक्ट का पूरी तरह लागू होना एक मुश्किल काम है। देश में संगठित सेक्टर में काम करने वाली महिलाओं का पुरुषों के मुकाबले में अनुपात 20 प्रतिशत है। ई श्रम पोर्टल के आंकड़ों के मुताबिक असंगठित क्षेत्र में रजिस्टर्ड महिलाएं 53 प्रतिशत हैं। इस सेक्टर में उचित नियमों की कमी व भ्रष्टाचार के कारण श्रम कानून सही तरीके से लागू नहीं हो पाता जो कि चिंता का विषय है।
इस्लामी शिक्षा न्याय व समानता पर आधारित है। इस्लाम पूंजी और मेहनत में कशमकश नहीं पैदा करता। अधिकार के लिए लड़ाई का माहौल नहीं बनाता। हर एक को उसके सही स्थान पर रख कर अधिकार और कर्तव्यों को निभाने के लिए अनुशासित करता है। तथा उसको पूरा करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को उसके कर्तव्यों के अनुसार जवाबदेह बनाता है। यदि एक ओर वह मेहनत को सम्मानजनक बनाता है तो पूंजी भी उसकी नज़र में महत्वपूर्ण है। लेकिन साथ ही इंसान के सम्मान को उसके पेशे से जोड़कर इंसानों को निम्न व उच्च नहीं बनाता। अल्लाह के रसूल सल्ल० फरमाया कि किसी इंसान ने अपने हाथ की कमाई से बेहतर खाना नहीं खाया। एक और अवसर पर उन्होंने फरमाया कि, “तुम में कोई शख़्स अपनी पीठ पर लकड़ियों का गठ्ठर लाए यह उससे बेहतर है कि वह किसी से सवाल करे” मज़दूरों की मज़दूरी उसके पसीना सूखने से पहले देने का हुक्म दिया। इन समानतापूर्वक शिक्षाओं का आज के मानवीय समाज में पालन किया जाए तो मेहनत करने वाले पुरुष व महिलाओं का जो संगठित एवं असंगठित सेक्टर में उत्पीड़न होता है उससे बचाया जा सकता है। समय पर उनकी मज़दूरी, संतुलित मज़दूरी, न्याय पर आधारित मज़दूरी, क्षमता से अधिक काम ना लेना। यह कुछ महत्वपूर्ण बातें हैं जिन को अपनाया जाए तो मज़दूरों के शोषण पर काबू पाया जा सकता है। मज़दूर दिवस के मौके पर एक रस्म की तरह कुछ लगे बंधे प्रोग्राम करने के बजाय उनके हितों के लिए समाज में जागरुकता पैदा करने की आवश्यकता है। उनकी इज़्ज़त और उनके आत्मसम्मान को ठेस नहीं पहुंचना चाहिए। देश की आर्थिक व्यवस्था सुधारने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देने वाले, अपना पसीना बहाकर मानव समाज की ज़रुरत पूरी करने वालें लोगों के हितों का रक्षक समूचा समाज बन जाए तो हमारी प्रगति में कोई रुकावट नहीं होगी। पूंजीपतियों के वर्चस्व वाले कारपोरेट कल्चर के इस दौर में लेबर लॉ का सही तरीके से लागू होना और नियम कानून तोड़ने वाले लोगों को कानूनी तौर पर जवाबदेह बनाकर ही मज़दूरों को शोषण से बचाया जा सकता है और यही मज़दूर दिवस का सच्चा सबक होगा।
शाईस्ता रफअत
जनरल सेक्रेटरी, द वूमेन एजुकेशन एंड इम्पॉवरमेंट ट्रस्ट