सूरा हदीद, आयत 25 के परिप्रेक्ष्य में इस्लामी शिक्षाएँ
"َقَدْ أَرْسَلْنَا رُسُلَنَا بِالْبَيِّنَاتِ وَأَنْزَلْنَا مَعَهُمُ الْكِتَابَ وَالْمِيزَانَ لِيَقُومَ النَّاسُ بِالْقِسْطِ ۖ وَأَنْزَلْنَا الْحَدِيدَ فِيهِ بَأْسٌ شَدِيدٌ وَمَنَافِعُ لِلنَّاسِ…"
(सूरा अल-हदीद, आयत 25)
अनुवाद :
“हमने अपने रसूलों को स्पष्ट प्रमाणों के साथ भेजा और उनके साथ किताब और न्याय का तराज़ू (मिज़ान) उतारा ताकि लोग न्याय पर स्थिर रहें। और हमने लोहे को उतारा जिसमें भारी ताक़त और लोगों के लिए फ़ायदे हैं…”
परिचय :
इस्लाम एक पूर्ण जीवन व्यवस्था है जो मानव जीवन के हर पहलू को न्याय के ढांचे में ढालता है। विशेषकर मज़दूरों और मेहनतकश वर्ग को इस्लाम ने एक महान स्थान प्रदान किया है, जो मानव इतिहास में अद्वितीय है।
सूरा हदीद की आयत 25 में "मिज़ान" (न्याय और संतुलन) और "हदीद" (लोहा) का उल्लेख सामाजिक न्याय, आर्थिक संतुलन और मानव अधिकारों की महत्ता को उजागर करता है। यह आयत हमें बताती है कि अल्लाह ने नबियों को केवल आध्यात्मिक मार्गदर्शन के लिए नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय और मानव अधिकारों की स्थापना के लिए भी भेजा। इस लेख में हम इसी आयत के आलोक में मज़दूरों के अधिकारों पर विस्तार से चर्चा करेंगे।
न्याय की स्थापना का आदेश: “लियक़ूमन नासु बिलक़िस्त”
अल्लाह फ़रमाते हैं: “ताकि लोग न्याय पर कायम रहें” यहाँ “क़िस्त” से तात्पर्य है न्याय, जो केवल अदालतों या शासकों की ज़िम्मेदारी नहीं बल्कि पूरे समाज का कर्तव्य है। मज़दूरों के संदर्भ में यह न्याय निम्न रूपों में ज़ाहिर होता है:
उचित मेहनताना: मज़दूर को उसके परिश्रम का पूरा हक़ मिलना चाहिए।
समय पर भुगतान: उसकी मज़दूरी समय पर दी जाए ताकि उसकी ज़रूरतें पूरी हो सकें।
सम्मान और करुणा: मज़दूर के साथ आदर और सौहार्द से व्यवहार किया जाए।
हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया:
“मज़दूर की मज़दूरी उसका पसीना सूखने से पहले दे दो।”
(सुन्नन इब्न माजह)
यह हदीस न्याय के व्यवहारिक स्वरूप का बेहतरीन उदाहरण है, जो हर नियोक्ता को मज़दूर का हक़ फ़ौरन अदा करने की हिदायत देती है।
किताब और मिज़ान: मार्गदर्शन और न्याय का पैमाना
अल्लाह ने हर नबी के साथ किताब भेजी ताकि मनुष्यों को हिदायत का रास्ता मिल सके और "मिज़ान" यानी संतुलन, न्याय और संयम का उसूल सिखाया। मज़दूरों के अधिकारों के संदर्भ में यह सिद्धांत कई अहम बातें सिखाता है:
मजदूरी में संतुलन: क़ुरआन में तौल और माप में कमी करने वालों को सख्त चेतावनी दी गई है (सूरा मुतफ़्फ़िफ़ीन)। उसी तरह मज़दूर की मज़दूरी में कटौती करना या उसके श्रम को कम आँक कर भुगतान करना ज़ुल्म है।
उचित वेतन: मज़दूर की मेहनत के अनुसार उसकी तनख़्वाह तय की जाए ताकि वह अपनी ज़रूरतें पूरी कर सके।
मिज़ान हर उस व्यक्ति के लिए एक मार्गदर्शक सिद्धांत है जो किसी की सेवा लेता है।
हदीद: संसाधनों का न्यायपूर्ण वितरण
“हदीद” (लोहा) इस आयत में तमाम भौतिक और आर्थिक संसाधनों का प्रतीक है, जिन्हें अल्लाह ने इंसान की तरक्क़ी और भलाई के लिए प्रदान किया। "मनाफ़ेउ लिन-नास" (लोगों के लिए लाभ) यह दर्शाता है कि ये संसाधन केवल कुछ अमीरों के लिए नहीं बल्कि सभी इंसानों के लिए हैं। लेकिन जब समाज में न्याय की प्रणाली कमजोर पड़ती है, तो मज़दूर और ग़रीब वर्ग इन संसाधनों से वंचित रह जाते हैं।
इस्लामी व्यवस्था इस बात की गारंटी देती है कि मज़दूर भी अल्लाह की धरती के संसाधनों में भागीदार है। संसाधनों को केवल अमीरों तक सीमित करना “लिन-नास” के क़ुरआनी उसूल की खिलाफ़वर्ज़ी है। इसलिए आर्थिक ढांचे को ऐसा होना चाहिए जिसमें मेहनतकश वर्ग भी विकास का लाभ उठा सके।
नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का व्यवहारिक उदाहरण
नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने न केवल मज़दूरों के अधिकारों को बताया, बल्कि स्वयं अमल कर के उदाहरण पेश किया। कुछ घटनाएँ दृष्टव्य हैं:
हज़रत सलमान फ़ारसी रज़ि. की मज़दूरी: जब उन्होंने खजूरों के बाग़ में मज़दूरी की, तो नबी करीम सल्ल. ने उनकी मेहनत की सराहना की और उनके लिए दुआ की।
गुलामों के साथ व्यवहार: आप सल्ल. ने फ़रमाया:
“तुम्हारे गुलाम तुम्हारे भाई हैं; जो खुद खाओ वही उन्हें खिलाओ, जो खुद पहनो वही उन्हें पहनाओ।”
(सहीह बुख़ारी व मुस्लिम)
अगर गुलामों के साथ इतना अच्छा व्यवहार का आदेश है, तो स्वतंत्र मज़दूरों के साथ कैसा होना चाहिए?
मज़दूर का दर्जा और महिमा
इस्लाम ने मेहनत को सम्मान और गरिमा का दर्जा दिया है। नबी करीम सल्ल. ने फ़रमाया:
“अल-कासिबु हबीबुल्लाह”
अर्थात् “मेहनत करने वाला अल्लाह का प्रिय होता है।”
यह हदीस मज़दूर की इज़्ज़त को ऊँचा करती है और उसे केवल पैसे का मोहताज नहीं बल्कि अल्लाह का प्रिय बंदा बनाती है। उसका पसीना उसकी मेहनत की गवाही है जो अल्लाह के यहाँ सम्मान का कारण बनता है।
आप सल्ल. ने फ़रमाया:
“मैं क़ियामत के दिन तीन लोगों के खिलाफ़ खुद मुक़दमा लड़ूँगा: एक वह जो मेरा नाम लेकर झूठी क़सम खाए, दूसरा जो किसी आज़ाद इंसान को गुलाम बना कर बेचे, और तीसरा वह जो मज़दूर से काम लेकर उसकी पूरी मज़दूरी न दे।”
(सहीह बुख़ारी, हदीस संख्या: 2227)
आज की दुनिया और इस्लामी शिक्षाएँ
आज के दौर में मज़दूरों के साथ दुर्व्यवहार आम है—कम वेतन, भुगतान में देरी, सुरक्षा सुविधाओं की कमी और आत्म-सम्मान का हनन जैसे मसले मज़दूर वर्ग को गंभीर संकट में डाल रहे हैं। इस्लामी शिक्षाओं की रौशनी में यह सब "क़िस्त" और "मिज़ान" के सिद्धांतों का खुला उल्लंघन है।
मज़दूरों के अधिकारों की रक्षा केवल क़ानून या ट्रेड यूनियनों के ज़रिए नहीं, बल्कि इस्लामी न्याय की भावना को दिलों में जगाने से संभव है।
व्यावहारिक उपाय:-
व्यवसायियों के लिए:
कर्मचारियों को समय पर वेतन दें।
उनकी सेहत, सुरक्षा और आराम का ध्यान रखें।
उनकी गरिमा को ठेस न पहुँचाएँ।
मस्जिद व मदरसा प्रबंधकों के लिए:
मस्जिद के सेवक, मुअज्जिन, क़ारी और अन्य कर्मचारियों की तनख़्वाह उचित और समय पर दें।
उनके साथ सम्मान और सौहार्द से पेश आएँ।
सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए:
मज़दूर वर्ग को उनके इस्लामी अधिकारों से अवगत कराएँ।
समाज में उनकी इज़्ज़त और सम्मान की बहाली का प्रयास करें।
अंततः, सूरा हदीद की आयत 25 हमें स्पष्ट संदेश देती है कि अल्लाह का उतारा गया निज़ाम केवल इबादतों तक सीमित नहीं, बल्कि उसका उद्देश्य समाज में न्याय की स्थापना है। मज़दूर, मेहनतकश और पसीना बहाने वाला व्यक्ति इस न्याय का सबसे बड़ा हक़दार है। स्वयं नबी करीम सल्ल. ने उसकी मज़दूरी को इतना महत्व दिया कि उसके साथ ज़ुल्म करने वालों से क़ियामत के दिन झगड़ने की घोषणा की।
हमें चाहिए कि अपनी व्यक्तिगत और सामाजिक ज़िंदगी में मज़दूरों के अधिकारों का पूरा ध्यान रखें। अगर हम वास्तव में “क़िस्त” पर क़ायम हो जाएँ, तो एक ऐसा समाज बन सकता है जहाँ हर व्यक्ति को इज़्ज़त, सम्मान और न्याय मिलेगा। यही क़ुरआन का महान संदेश है।
शाज़िया शेख स्वालिहाती