मज़दूर दिवस प्रत्येक वर्ष संपूर्ण विश्व में मजदूरों के सम्मान और उनके कार्य की सराहना के लिए मनाया जाता है। इसकी शुरुआत अमेरिका में 1 मई 1889 से हुई परंतु उनकके अधिकारों के लिए संघर्ष एवं प्रयास 1886 से किया जाने लगा था और 3 वर्ष बाद इसे आधिकारिक रूप से वैश्विक स्तर पर मनाया जाने लगा। भारत में 1 मई 1923 को पहली बार मज़दूर दिवस मनाया गया और अमेरिका की तरह यहां भी श्रमिकों के लिए 8 घंटे काम करने का नियम लागू कर दिया गया।
सामान्यतः मज़दूर दिवस पर जब चर्चा होती है तो अधिकतर निचले और मध्यम वर्ग के श्रमिकों के संदर्भ में बातचीत की जाती है और उनकी अनथक मेहनत व परिश्रम से संबंधित किस्से बयान किए जाते है। हालांकि उनके श्रम और कार्य का मूल्यांकन करना आसान नहीं है।
लेकिन जब मज़दूर की बात की जाए तो किसी भी समाज, संस्था और उद्योग आदि में काम करने वाला हर व्यक्ति उस में शामिल होता है। क्योंकि जहां शारीरिक श्रम महत्वपूर्ण है वहीं मानसिक श्रम भी महत्वपूर्ण है।
कार्यालय में काम करने वाले कर्मचारी हो, दैनिक मज़दूर या किसी बड़ी संस्था में ऊंचे पदों पर कार्यरत्त कर्मचारी, हर एक का सम्मान किया जाना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति जो अपनी क्षमता एवम् कौशल के अनुसार राष्ट्र निर्माण में किसी भी रुप से योगदान दे रहा है वह हमारे समाज एवं राष्ट्र के अभिन्न अंग हैं। सबके श्रम का सम्मान एवं सबके कौशल का विकास किया जाना चाहिए, किसी भी कर्मचारी को उसके कार्यक्षेत्र एवं कार्य की प्रकृति व लिंग के आधार पर छोटे या बड़े के रुप में विभाजित नहीं किया जा सकता। सबको समान सम्मान एवं अधिकार मिलना चाहिए।
NBT की एक रिपोर्ट के अनुसार केरल की एक निजी कम्पनी में कर्मचारी को टारगेट पूरा ना करने पर गले में पट्टा बांध कर कुत्ते की तरह घुटनों के बल चलवाया गया। इसी तरह कई संस्थानों में वेतन समय पर ना देने और दुर्व्यवहार करने के मामले सामने आते रहते है। यहीं से इन उच्च पदों पर कार्यरत कर्मचारियों में अवसाद, तनाव, चिंता आदि के मामले बढ़ रहे है। अतः प्रत्येक स्तर पर कर्मचारियों के साथ चाहे संगठित क्षेत्र हों या अंसगठित क्षेत्र दोनों जगहों पर उचित व्यवहार किया जाना चाहिए।
हालांकि इस क्षेत्र में सरकारों, सामाजिक संस्थाओं, अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने निश्चित ही सुधार के अनेकों प्रयास किए हैं परंतु महिला कर्मचारियों के प्रति अभी भी चुनौतियां बनी हुई हैं। आज भी महिला कर्मचारियों की स्थिति दयनीय है। कार्यस्थल पर यौन शोषण, असमान वेतन, लिंग आधारित, जाति आधारित भेदभाव की स्थिति यथावत बनी हुई है। जिसमें अभी सुधार की आवश्यकता है।
वहीं अंसगठित क्षेत्रों में महिलाओं की स्थिति और अधिक चिंताजनक है। नवभारत टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार बिहार के भागलपुर जिले में 11 महिला श्रमिकों को काम के बाद वेतन ना मिलने पर महिलाओं ने काम करने से इंकार कर दिया इसी कारण नाराज़ अधिकारियों ने महिला मज़दूरों की लाठी- डंडे से पिटाई की।
आज समूचे विश्व में उदारवादी नारों के द्वारा इस बात को बढ़ावा दिया गया कि कामकाजी महिला ही सशक्त और सम्मानित है। इसलिए आज के युग में हर पढ़ी लिखी महिला चाहती है कि वो घर से बाहर निकल कर नौकरी करे, मर्द के कंधे से कंधा मिला कर कदमताल कर सके और अपने आप को सशक्त कहलवाए।
इसी कारण हमारे समाज में भी ये मानसिकता बन गई कि जो महिला बाहर जाकर काम करे वहीं सम्मानित है और उसे ही इज़्ज़त की नजर से देखा जाए। घरेलू काम करने वाली महिलाओं को आज समाज में इतनी प्रतिष्ठा नहीं मिलती जितनी दूसरी महिलाओं को मिलती है। जबकि एक महिला जो घर में रहती है उस घर को बनाती- संवारती है , दिन- रात काम करती है, अपने बच्चों की परवरिश करती है और उन्हें एक अच्छा इंसान बनाने के लिए अनथक मेहनत करती है उसी समाज में उसे "कुछ नहीं करती" का ताना सहना पड़ता है।
एक महिला होने के नाते ये उसका सर्वप्रथम दायित्व है कि वो घर की देखभाल करे। इस बात से भी इंकार नहीं है कि वो काम ना करे, अगर जरूरत हो तो वो ज़रूर अपनी क्षमता के अनुसार कार्य कर सकती है। लेकिन उसकी घरेलू जिम्मेदारी को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। एक औरत जो आने वाली नस्ल को पाल पोस पर बड़ा करती है, उनकी परवरिश करती है, उनको नैतिकता सिखाती है, उनकी सलाहियतों को परवान चढ़ाती है, उनको एक अच्छा और सफल इंसान बनाने में मदद करती है, अफसोस की बात है कि उस औरत की जिस कद्र इज़्ज़त होनी चाहिए वो आदर और सम्मान उसे नहीं मिलता।
तथाकथिक बुद्धिजीवियों के द्वारा भी इस मुद्दे पर चुप्पी नहीं तोड़ी जाती ना ही समाज के लोग एक महिला मज़दूर को वो इज़्ज़त और सम्मान देते है जो असल में उसे मिलना चाहिए।
ख़ान शाहीन संपादक