वर्तमान समय में शिक्षा का परिदृश्य: दशा एवं दुर्दशा
ज्ञान एवं शिक्षा (Knowledge and Educatio) का वर्तमान समय में बहुत महत्व है। कोई भी इसमें पीछे नहीं रहना चाहता है। उच्च शिक्षा के प्रति जनता में रुचि पहले के मुकाबले में अधिक बढ़ गई है। सरकारों ने भी इसके लिए प्रयास किए हैं। सरकारों से इतर भी ढेरों एनजीओज़ और स्वयंसेवी लोग भी समाज में शिक्षा का स्तर उच्च करने एवं बेहतर करने के लिए निंरतर प्रयास कर रहे हैं। बल्कि इससे आगे बढ़कर इक्कीसवीं शताब्दी को इनफॉर्मेशन एक्सप्लोज़न (सूचनाओं के धमाके) का युग भी कहा जाता है, जहां सूचनाएं बड़ी तेज़ रफ़्तार के साथ संचारित होती हैं। कोई व्यक्ति इससे अछूता नहीं है।
इसी के साथ-साथ आधुनिक युग में इंसान ने भौतिक एवं तकनीकी रूप से बड़ी ऊंचाइयों को छुआ है। यातायात एवं संचार के साधनों में गज़ब की तेज़ी आई हैं। हवाईजहाज, बुलेट ट्रेन, इंटरनेट एवं सोशल साइट्स इसकी एक झलक मात्र है। धरती से आगे बढ़कर सितारों और चांद तक इंसान ने अपनी पहुंच बनाई है और अंतरिक्ष के संसार को खंगालने में लगा हुआ है।
ये तस्वीर का केवल एक पहलू है। तस्वीर का दूसरा रुख बड़ा भयानक और अत्यंत ख़तरनाक़ है। शिक्षा का जितना प्रसार हुआ है नैतिकता में उतनी ही गिरावट आई है। डिग्रीधारी लोग जितने बढ़ते गए समाज से नैतिक मूल्यों का उतना पतन होने लगा। आप किसी भी दिन का अख़बार उठा लीजिए। रिश्वत, भ्रष्टाचार, बलात्कार, क़त्ल, अत्याचार, मार-काट और मानव अधिकार हनन की ख़बरें भरी मिलेंगी। आख़िर इन घटनाओं को कौन अंजाम दे रहा हैं? क्या उच्च अधिकारी अनपढ़ हैं, ये बड़े-बड़े घपले करने वाले लोग uneducated हैं। नहीं। बिल्कुल नहीं, बल्कि अधिकतर मामलों में अनैतिक एवं अवैध कार्यों में संलिप्त लोग उच्च शिक्षित होते हैं।
अब एक बड़ा प्रश्न यहां पर यह उत्पन्न होता है कि आख़िर ये कैसी शिक्षा है जिसे प्राप्त करने के पश्चात ऐसे लोग तैयार हो रहे हैं?
आख़िर इस शिक्षा व्यवस्था में वो कौनसी बुनियादी कमज़ोरियां हैं जिनके कारण पढ़ी लिखी नस्ल ऐसी बन गई हैं?
पानी कहां मर रहा है? कमी कहां रह गई है?
वर्तमान शिक्षा व्यवस्था की बुनियादी एवं मुख्य समस्याओं पर चिंतन मनन करते हैं तो निम्न पॉइंट्स सामने आते हैं:-
1) वर्तमान समय में शिक्षा को मार्केट की एक वस्तु बना दिया गया है। जिसे ख़रीदा एवं बेचा जाता है। शिक्षा का एक मात्र लक्ष्य नौकरी प्राप्ति एवं अधिकाधिक धन हासिल करना रह गया है। उच्च शिक्षा के बाद अगर नौकरी न मिले तो इसे असफ़लता समझा जाता है। इस परिस्थिति को एकेडमिक शब्दावली में शिक्षा का बाज़ारीकरण कहा जाता है। शिक्षा बाज़ार एवं उद्योग की आश्यकताओं की पूर्ति करने का एक साधन मात्र बनकर रह गयी है। जिन बच्चों को बचपन से ही जॉब, नौकरी, आर्थिक सुख सुविधाओं की लालसा का पाठ पढ़ाया जाएगा ज़ाहिर है वो बड़े होकर इन चीज़ों के लिए किसी भी हद तक चले जाएंगे। क्योंकि लालच और हवस की आग कभी बुझती नहीं। शिक्षा बौद्धिक चेतना का माध्यम न रहकर आर्थिक लोभ प्राप्ति का साधन मात्र बनकर रह गया है।
2) आज की शिक्षा व्यवस्था में समझने के बजाए रट्टामारी पर ज़ोर है। पढ़ाने का तरीक़ा, क्लास का माहौल और परीक्षा व्यवस्था ऐसी बनी हुई हैं जो स्टूडेंट्स को सोचने-विचारने, समझने, समस्या का डायग्नोसिस करने एवं समाधान तलाशने के लिए तैयार ही नहीं कर पा रही हैं। इसीलिए स्कूलों एवं कॉलेजों से निकलने वाले स्टूडेंट्स की बड़ी संख्या मात्र डिग्रीधारी ग्रेजुएट्स हैं। उन्हें न भाषा का ज्ञान हैं न समाज का बोध। उनकी हालत इस शेअर जैसी बनी हुई है,
यूं इल्म की चाह में निकले हैं अपना भी निशां मालूम नहीं
जाना है वहां मंज़िल है जहां, मंज़िल है कहां मालूम नहीं
3) रचनात्मकता के बजाए नक़ल एवं कॉपी पेस्ट का प्रचलन है, क्रिएटिविटी है ही नहीं। दुनिया कहां से कहां पहुंच गई और हम अभी तक वही मार-पीट के माध्यम से समझाने, वही घिसा पिटा होमवर्क, एक जैसा डेली शेड्यूल, बोरिंग माहौल। बड़ी समस्या यह है कि आज की शिक्षा में स्टूडेंट्स के लिए आकर्षण नहीं है। अध्यापक उस स्तर पर अपने आपको एडवांस लेवल पर अपग्रेड नहीं कर पा रहे हैं। छोटे छोटे मासूम बच्चों के बचपन को बोझिल शिक्षा प्रणाली के नीचे रौंद दिया जाता है। बचपन की सुंदरता एवं कोमलता मुरझा रही है।
4) टैलेंट्स को पहचानने, प्रतिभा को विकसित करने, सलाहियत पैदा करने के बजाए आज की शिक्षा व्यवस्था में नंबर एवं रैंक की अंधी दौड़ और होड़ है, क़ाबिलियत एवं क्वॉलिटी का ज़िक्र ही नहीं है। व्यवहारिक ज्ञान (प्रैक्टिकल नॉलेज) है ही नहीं। हर स्कूल अपने टॉपर्स की होर्डिंग लगाकर प्रचार में मगन है, कक्षा के छात्रों एवं छात्राओं पर एक दूसरे से अधिक नंबर लाने का गहरा दबाव है। हर मां बाप ये चाहते हैं कि उसकी औलाद टॉप करे। इसका नतीजा स्टूडेंट्स में डिप्रेशन, टेंशन, मानसिक अवसाद, चिड़चिड़ापन एवं आत्महत्या की शक्ल में सामने आता है। जो कि एक भयानक परिस्थिति है।
5) कैसे ही करके स्टूडेंट्स को सिलेबस पढ़ा देना, रटा देना और साल भर में कुछ कार्यक्रम करके एडमिशन बढ़ाने पर ही पूरा फ़ोकस होता है। स्टूडेंट्स के व्यक्तिव निर्माण की कोई योजना नहीं। छात्र एवं छात्राओं की आदतें अच्छी हो, उनका नैतिक विकास हो, वो अच्छे इंसान बनें, बुरी आदतों से बचे, सजग नागरिक बने, घर पर अच्छा माहौल बनाए, हर प्रकार के नशे (मोबाइल एडिक्शन भी एक नशा ही है) से दूर रहे, इसके लिए शायद ही हमारे यहां स्कूलों में कोई सुनियोजित प्रयास होता हो। सोच समझकर, स्टूडेंट्स के टैलेंट्स एवं प्रतिभा को पहचानने, विकसित करने एवं बेहतर दिशा देने के बजाए भीड़चाल का वातावरण पाया जाता है।
वर्तमान शिक्षा व्यवस्था की ये वो कमियां हैं जिनका संबंध हर समुदाय एवं संप्रदाय के स्टूडेंट्स से हैं। इन विकराल परिस्थितियों की बेहतर समझ बढ़ें, इन को चेंज करने के लिए क्या कुछ संभावनाएं हैं उन्हें एक्सप्लोर करना और सुनिजोजित ढंग से इस काम को आगे बढ़ाना समय की पुकार है।
(दूसरी क़िस्त)
अनवर काठात
स्वतंत्र लेखक, ब्यावर, राजस्थान