क्या छोटे बच्चों को डराना चाहिए?
अकसर माता-पिता पूछते हैं “मेरा बच्चा खाना नहीं खाता, लेकिन अगर मैं उसे डरा दूं तो वह खाना खा लेता है।” लेकिन विशेषज्ञ कहते हैं कि “डराना या ख़ौफ दिलाना बच्चों के लिए ख़तरनाक है।” अधिकांश बच्चों को डरा कर ही हमारे यहां काम करवाया जाता है। जब बच्चा ज़िद करता है और बुरी तरह रोता है तो उसे किसी भूत का, बुड्ढे का, या मारने का डर दिखाया जाता है। आइए समझें कि कैसे बच्चों के मानसिक विकास के लिए यह ख़तरनाक है।
बचपन में माता पिता की ओर से बार बार डराने का बच्चों के दिमाग (Neuron) और मानसिक विकास पर बुरी तरह से नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। यह प्रभाव ना केवल अस्थायी होता है बल्कि कभी कभी यह लंबे समय तक भी हो सकता है। डर बच्चे के न्यूरॉन्ज़ को कैसे प्रभावित करता है? दिमाग के सांचे पर पड़ने वाले प्रभाव को समझने के लिए पहले कुछ मैकेनिज़्म को समझते हैं।
एमीगडाला (Amygdala)
यह दिमाग का वह हिस्सा है जो डर और ख़तरे को महसूस करता है। निरंतर डर इस हिस्से को हद से ज़्यादा संवेदनशील बना देता है, जिससे बच्चा छोटी छोटी बातों पर भी डरने लगता है। आप पूरे इस्लामी प्रशिक्षण पर नज़र डालें तो ज़ालिम से दबने और डरने से इस्लाम ने रोका है और ईमान के ज़रिए यह समझाया गया है कि एक असाधारण शक्ति अल्लाह के पास मौजूद है, वह आपकी सहायक बनेगी। यह विश्वास आपके डर को हावी होने नहीं देता बल्कि आपके दिमाग के संवेदनशील हिस्से को कमज़ोर बनाने से बचाता है।
हिप्पोकेम्पस (Hippocampus)
इंसान हर रोज़ ज़िंदगी में जो भी काम करता है वह याद्दाश्त के आधार पर ही करता है। याद्दाश्त दरअसल एक प्रकार का डेटाबेस है, जो इंसानी दिमाग में सुरक्षित रहता है। यह याद्दाश्त ही सीखने का केंद्र है। डर के कारण उसकी काम करने की क्षमता कम हो जाती है और बच्चा याद्दाश्त और सीखने की प्रक्रिया में कमज़ोरी का शिकार हो सकता है।
अकसर माता-पिता परेशान होते हैं कि उनके बच्चे पढ़ाई में कमज़ोर हैं, या उन्हें कोई चीज़ जल्दी याद नहीं होती है। वह खुद बच्चों को बचपन से डराकर रखते हैं और कभी यूं होता है कि उन्हें स्क्रीन के हवाले कर दिया जाता है, जहां वह हॉरर चीज़ें देखकर कमज़ोर हो जाते हैं और अपनी याद्दाश्त कमज़ोर कर लेते हैं।
इसी प्रकार समस्या को हल करने में प्रीफर्नटल कार्टिक्स का बहुत महत्व है। इसे समझते हैं कि यह कैसे काम करता हैः-
प्रीफर्नटल कार्टिक्स (Prefrontal Cortex) – यह निर्णय लेने की क्षमता, खुद को कंट्रोल करने का केंद्र है। डर इसके विकास को प्रभावित करता है, जिससे बच्चा जल्दी नर्वस हो जाता है, या फिर सेल्फ कंट्रोल खो सकता है। बात-बात पर झुंझलाहट का शिकार हो सकता है, या चिड़चिड़ाहट का शिकार हो सकता है।
बच्चों में प्रीफर्नटल कार्टिक्स का विकास एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है, क्योंकि यही हिस्सा उनके फोकस, याद्दाश्त और इमोशनल कंट्रोल, एवं निर्णय लेने की क्षमता का आधार बनता है, यदि यह हिस्सा प्रभावित हो जाए तो बच्चे की सीखने, बर्ताव करने और सामाजिक एक्टिविटी पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। बच्चे बड़े तो हो जाते हैं, लेकिन वह समाज को फायदा पहुंचाने वाला कोई काम नहीं कर पाते। स्वयं को पहचान नहीं पाते या लापरवाह रहते हैं, चुनौतियों का सामना करने से घबराते हैं, सुस्ती हावी रहती है।
बच्चों को बचपन से ही शारीरिक खेलकूद, सामाजिक संबंध और घर पर ध्यान देने वाला माहौल मिलना बहुत ज़रुरी है। घर में भी माता-पिता का संबंध अच्छा और मज़बूत होना चाहिए। बच्चों के खान-पान पर भरपूर ध्यान दिया जाना चाहिए। आजकल माता-पिता के पास समय ना होने के कारण बच्चों को जंक फूड या फास्ट फूड का आदी बना दिया जाता है और उन्हें यह सब खिलाना वर्तमान समय का स्टेट्स सिंबल बन चुका है। लेकिन ऐसे अस्वस्थ्य खानपान का प्रीफर्नटल कार्टिक्स के विकास पर गहरा असर पड़ता है।
नीचे हम कुछ महत्वपूर्ण कारण बता रहे हैं जिससे माता-पिता को यह समझने में आसानी होगी कि अपने सात साल से कम आयु के बच्चों पर ध्यान ना देना कितना खतरनाक साबित हो सकता है। और यदि ध्यान दिया जाए तो बच्चे का व्यक्तित्व मज़बूत बनता है। बचपन में होने वाली घटनाएं पूरी ज़िंदगी पर असर डालती है।
बच्चों में प्रीफर्नटल कार्टिक्स प्रभावित होने के महत्वपूर्ण कारक
अधिक स्क्रीन टाइम (Excessive Screen Time) : मोबाईल, टी.वी, टेबलेट के ज़्यादा इस्तेमाल से दिमागी विकास, विशेषरुप से प्रीफर्नटल कार्टिक्स का विकास धीमा हो जाता है। इससे फोकस करने में कमी, भावनात्मक अंसतुलन, और सीखने की प्रक्रिया में रुकावट आ सकती है। आमतौर से घरों में बच्चों को पहले माता-पिता स्क्रीन का आदी बनने में सहुलियत देते हैं और जब बच्चा उसका आदी हो जाता है तो रवैये में बदलाव करने की कोशिश की जाती है, काउंसलर से मदद ली जाती है कि बच्चे को स्क्रीन से कैसे दूर रखा जाए।
रवैये का बदलाव केवल रवैये नहीं बल्कि प्रीफर्नटल कार्टिक्स के कामों को भी प्रभावित करता है और बच्चा अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रख पाता।
मानसिक दबाव या घरेलू कलह (Chronic Stress pr Trauma), PTSD (Post stress Traumatic Disorder)– एक ऐसा डिसऑर्डर है जो बचपन के हादसे या मानसिक दबाव या बच्चे के दिमाग को लगने वाले किसी सदमे से संबंधित होता है। यदि बच्चे निरंतर घरेलू झगड़ों, बदसलूकी या डर का शिकार हों। अकसर रिश्तेदार बच्चों के साथ बदसलूकी करते हैं, या साथ में पढ़ने वाले बच्चे परेशान करते हैं। इन सब हालात में बच्चे के दिमाग में कोर्टिसोल का स्तर बढ़ जाता है, जो प्रीफर्नटल कार्टिक्स को प्रभावित करता है। जिस कारण बच्चा संकीर्ण मानसिकता वाला हो जाता है, उसकी निर्णय लेने की क्षमता प्रभावित होती है, वह सही योजना नहीं बना पाता, जिस कारण झुंझलाहट का शिकार होता है।
नींद की कमी (Lack of sleep) – नींद मानसिक सेहत के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। यदि नींद पूरी ना हो तो उससे याद्दाश्त और निर्णय लेने की क्षमता कमज़ोर हो जाती है। बच्चे आजकल स्क्रीन ज़्यादा इस्तेमाल करते हैं और रात में देर तक जागते हैं। जिस कारण बच्चों को रात जल्दी सोने का शेड्यूल नहीं बन पाता और अगर स्कूल की वजह से सुबह जल्दी जाग भी जाएं तो दिन भर थकान बनी रहती है जिससे भी प्रीफर्नटल कार्टिक्स प्रभावित होता है और बच्चे के व्यक्तित्व पर बुरा असर पड़ता है।
सही खान-पान का अभाव (Nutritional Deficiency) – सही और उचित खान-पान की समझ होना भी ज़रुरी है। आजकल माता-पिता बच्चों की ज़िद पर, पैकिंग फूड, फास्ट फूड या ऑनलाइन ऑर्डर करने की सुविधा का फायदा उठाते हैं। आजकल होटल से ऑर्डर करना और बच्चों की ज़रुरत पूरी करना एक फैशन बन चुका है। बच्चों को इस प्रकार के खाने से सही पोषण नहीं मिल पाता जिससे उनका समुचित विकास नहीं हो पाता। आयरन, ओमेगा-3, विटामिन-बी, फैटी एसिड की कमी से प्रीफर्नटल कार्टिक्स प्रभावित होता है और बच्चों का मानसिक विकास सही तरीके से नहीं हो पाता।
मादक पदार्थों के सेवन वाला माहौल (Exposure to Drugs or Alcohol) – यदि बच्चा मां के पेट में हो और मां इस दौरान सिगरेट, शराब या कोई और नशे का सेवन करे तो बच्चे का प्रीफर्नटल कार्टिक्स प्रभावित होता है।
कमज़ोर शिक्षा व दिमागी सक्रियता में कमी (Lack of Cognitive Stimulation) – घर का माहौल शैक्षिक हो, घर में पढ़े लिखे लोग हों, बातचीत अलग अलग मुद्दों पर की जाती हो, माता-पिता अच्छी भाषा का प्रयोग करते हों तो बच्चे भी अच्छी भाषा बोलते हैं और उनका मानसिक विकास भी उसी प्रकार से होता है। घर में जितना सकारात्मक माहौल होगा उतनी तेज़ी से बच्चा भी सीखता है। वे बच्चे जिन्हें सीखने, सवाल करने, या खेलने के मौके कम मिलते हैं, उनमें प्रीफर्नटल कार्टिक्स सही से विकसित नहीं हो पाता। आजकल माता-पिता बच्चों को बचाने के लिए केवल घर तक सीमित रखते हैं, कॉलोनी के बच्चों से दोस्ती नहीं, रिश्तों से काटकर रखा जाता है, जिस कारण बच्चों के प्रीफर्नटल कार्टिक्स का विकास नहीं हो पाता।
दिमागी चोट या हादसा (Head Injury) – किसी चोट या हादसे में अगर दिमाग के अगले हिस्से को नुकसान पहुंचे, या बच्चे का सिर तीन साल से पहले किसी चीज़ से टकराने, ट्रांसपोर्ट में सफर के दौरान टकरा जाए तो प्रीफर्नटल कार्टिक्स प्रभावित हो सकता है।
अकसर बच्चों में माता-पिता या अभिभावकों के डराने के बजाय जानवर मारते देखना भी डर का कारण बन जाता है। इसलिए जब तक बच्चे समझदार ना हो जाए तब तक जानवर कटते हुए उन्हें नहीं दिखाना चाहिए। डर के कारण हार्मोन्स पर पड़ने वाले प्रभाव को आइए समझते हैः-
डर के कारण स्ट्रेस हार्मोन्स और कार्टिसोल ज़्यादा रिलीज़ होते हैं। कार्टिसोल के बढ़ने से न्यूरॉन्स कमज़ोर हो जाते हैं। जिस कारण बच्चे में तनाव, चिड़चिड़ापन, नींद की खराबी और एकाग्रता की कमी जैसी समस्याएं उभरने लगती हैं।
लंबे समय तक दिखने वाले प्रभाव (Long Term Effects) – आत्मविश्वास की कमी लगातार बनी रहती है जिससे बच्चे के पूरे व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ता है। बच्चे बड़े होने के बाद अपनी शख्सियत की कमज़ोरी को पहचान लेते हैं और अपने माता-पिता द्वारा बरती गई लापरवाही की शिकायत करते है और उन्हें इसका ज़िम्मेदार ठहारते हैं। कभी कभी बच्चे इस कारण मां-बाप से अलग हो जाते हैं या उनके साथ बुरा बर्ताव करते हैं।
सोशल फोबिया या आत्मविश्वास की कमी
मानसिक दबाव (Anxiety/Depression)
बच्चों का बचपन में बागी बर्ताव या भावनात्मक अंसतुलन, सिरफिरा व्यवहार इसी वजह से दिखाई पड़ता है क्योंकि उनके माता-पिता उन्हें डर के जाल में जकड़ कर रख देते हैं। माता-पिता की ओर से डराना ऊपर से तो तरबियत दिखाई पड़ता है, लेकिन यह बच्चे की कल्पनाओं को नुकसान पहुंचाकर उनकी सीखने की प्रतिभा और भावनाओं को प्रभावित करता है।
बच्चों को डराकर पालने के क्या नुकसान हो सकते हैं?
हमारे यहां आमतौर पर यह धारणा आम है कि बच्चों को डराकर पालना अच्छे संस्कार की निशानी है। लेकिन विशेषज्ञ इस बात से असहमति जताते हैं कि बच्चों को डराना एक संवेदनशील मामला है जिसका उनकी शख्सियत पर असर पड़ता है। आइए हम डर मुक्त परवरिश (Fear Based Parenting) के नुकसान पर नज़र डालते हैः-
भावनात्मक नुकसानः
बच्चों को डराकर पालने का पहला और बड़ा नुकसान भावनात्मक स्तर का होता है। जब बच्चों को डराकर पाला जाता है जैसे कि “भूत आ जाएगा” “बाहर बच्चे उठाने वाले आए हैं” इत्यादि तो यह बार बार का डराना भावनात्मक रुप से बच्चे के मानसिक सेहत पर असर डालता है।
कुछ माता-पिता अपने आप से बच्चों को इस तरह डराते हैं कि बच्चा माता-पिता से ही छिपता फिरता है। सलमान आसिफ सिद्दीक एक मनोविशेषज्ञ हैं, वह कहते हैं कि “हमारे यहां कुछ माता-पिता बच्चों को अपने आप से इस तरह डराते हैं जैसे अल्लाह से डराया जाना चाहिए।” बच्चों के अंदर डाला जाने वाला यह डर भविष्य में आत्मविश्वास की कमी, डिप्रेशन और तनाव का कारण बनता है।
विश्वास की समाप्तिः
बच्चे माता-पिता और बड़ों को अपने लिए सुरक्षित ठिकाना समझते हैं। अगर यही ठिकाना उन्हें डराने में लग जाएं तो बच्चों का भरोसा ही उठ जाता है। जिसके परिणामस्वरुप बच्चे अकेला महसूस करते हैं और उनका भरोसा, आत्मविश्वास पूरी तरह समाप्त हो जाता है। ऐसे बच्चे आमतौर पर अकेले रहने लग जाते हैं, क्योंकि उनका मानना होता है कि जब माता-पिता और घर के लोग ही उन्हें डरा रहे हैं तो समाज उन्हें कैसे स्वीकार करेगा।
झूठ बोलने की आदत पड़ जानाः
बच्चों के लिए गलती करना कोई अनोखी बात नहीं है। बच्चे हर गलती से सीखते हैं और अगर गलती पर उन्हें उचित तरीके से समझाया जाए तो वह गलती से मिले सबक को अपनाकर आगे गलती से बचने की कोशिश करते हैं। लेकिन अगर बच्चों को गलती पर डराया जाए तो वह सच बोलने के बजाय सज़ा से बचने के लिए झूठ का सहारा लेंगे, जो भविष्य में उनकी दुनिया की ज़िंदगी और दीनी ज़िंदगी का हुस्न तबाह कर देगा।
यहां माता-पिता के लिए कुछ सलाह हैः
हर दिन का शेड्यूल बनाएं। बाहर की चीज़ें सफाई से बनी हुई नहीं होती हैं और ना ही उन्हें स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर बनाया जाता है, इसलिए कोशिश करें कि घर का ही बना खाना बच्चे खाएं। जैसे – फल, सब्ज़ियां, मेवे, ओमेगा इत्यादि।
स्क्रीन टाइम सीमित करें। उन्हें खेलने, सोचने और सवाल करने की आज़ादी दें। साथ लेकर खेलें, प्रेमपूर्ण एवं सकारात्मक माहौल उपलब्ध करवाएं। साइकलिंग करवाएं।
बच्चों के सामने लड़ाई झगड़ा करने से बचना चाहिए।
बच्चों के खेलने की जगह पर चोट पहुंचाने वाले सामान नहीं रखने चाहिए। बच्चा जब तीन साल का हो जाए तब उसे गिरने पर सिर को बचाने की तकनीक समझानी चाहिए।
बच्चों के सामने सीखने का माहौल बनाने के लिए शैक्षिक खिलौने और पढ़ाने का माहौल उपलब्ध कराया जाना चाहिए।
ख़ान मुबश्शरा फिरदौस
संपादक, हादिया ई मैग्ज़ीन