सामाजिक असमानता का वास्तविक समाधान
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संपादकीय
सामाजिक असमानता का वास्तविक समाधान

हाल ही में कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने पत्रकारों से बातचीत के दौरान कहा था समाज में असमानता के कारण लोग अपना धर्म बदल रहे हैं और दूसरे धर्म अपना रहे हैं। हमारे हिंदू समुदाय में, अगर समानता और समान अवसर होते, तो कोई धर्म परिवर्तन क्यों करता?”उन्होंने यह भी कहा कि अगर समानता और समान अवसर होते, तो छुआछूत क्यों अस्तित्व में आता? उनके इस बयान पर विधानसभा में विपक्ष के नेता अशोक ने उनकी आलोचना की। उन्होंने हिंदू धर्म पर ध्यान केंद्रित करने के लिए मुख्यमंत्री पर निशाना साधते हुए कहा कि जब समानता की बात आती है, तो आप हमेशा हिंदू धर्म को निशाना बनाते हैं। क्या आपमें मुसलमानों से समानता के बारे में सवाल करने का साहस है? (द न्यू इंडियन एक्सप्रेस)

दुर्भाग्यवश हमारे देश की यह परंपरा बनती चली जा रही है कि यदि कोई नेता या उच्च पद पर बैठा व्यक्ति कोई बयान देता है तो तुरंत उसका राजनीतिकरण किया जाने लगता है। जबकि हमें उसकी वास्तविकता को समझना चाहिए, और समस्या को जड़ से समाप्त करने के उपाय अपनाने चाहिए।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी असमानता, छुआछूत, ऊँच-नीच और जाति व्यवस्था का कड़ा विरोध किया था। उन्होंने हमेशा समानता, भाईचारे और मानवीय बंधुता की शिक्षा दी। मगर अफसोस आज भी हमारे देश में स्थिति ऐसी है कि अगर दलित समाज का कोई बच्चा पढ़-लिखकर कोई ऊँचा मुकाम हासिल कर लेता है, तब भी उसे वह स्थान प्राप्त नहीं होता जो ब्राह्मण समाज के लोगों को पहले से मिला हुआ है। 

आज भी बहुत सारी जगहों पर दलित समाज के पुरुषों को मूंछ रखने और घोड़े पर चढ़ने की इजाज़त नहीं है। आज भी मणि सिंह यादव जैसा कोई व्यक्ति कथा करता है तो उसे स्वीकार नहीं किया जाता, तथा कथित उच्च समुदाय द्वारा उन्हें बेरहमी से पीटा जाता है, अपमानित किया जाता है। इतना ही नहीं, उनके कपड़े फाड़ दिए जाते हैं, उन्हें महिलाओं के पैरों पर नाक रगड़ने के लिए मजबूर किया जाता है, उनका हारमोनियम, जो उनकी आजीविका का एकमात्र स्रोत था, तोड़ दिया जाता है। 

तथाकथित उच्च वर्ग इतने ही पर नहीं रुका बल्कि उन्होंने मणि यादव से पूछा, "एक चमार होकर, ब्राह्मणों के गाँव में आकर कथाकली बनने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई?" यादव कहते हैं, इतना ही नहीं, उन्होंने मेरे सारे बाल काट दिए और गाँव के एक ब्रहमण बुज़ुर्ग की पत्नी का पेशाब मुझ पर फेंकने के लिए ले आए।

ये और ऐसी अनगिनत भयानक घटनाएँ हमारे देश में सदियों से होती चली आ रही हैं और दुर्भाग्य है कि आज भी प्रचलित हैं। हम बार-बार ऊँच-नीच और जात-पात के भेदभाव की खबरें सुनते और पढ़ते हैं। जो लोग सुधा रमैया की आलोचना के जवाब में इस्लाम में समानता की अवधारणा पर सवाल उठाते हैं, उन्हें यह बात समझनी चाहिए कि इस्लाम ही एकमात्र ऐसा धर्म है जहाँ: असमानता की कोई अवधारणा ही नहीं है। भारत में जाति व्यवस्था इतनी गहरी जड़ें जमा चुकी है कि इतिहास मे कई महान व्यक्ति गुजरे है जिन्होंने इसे समाप्त करने का संकल्प किया मगर पूर्णतः सफल नहीं हुए। 

जबकि इस्लाम द्वारा दी गई समानता की अवधारणा वास्तविक है बल्कि इस्लाम के प्रसार का एक सबसे बड़ा कारण भी यही रहा है, इन्ही शिक्षाओ से प्रभावित होकर बड़ी संख्या में लोग इसके करीब आए हैं। क़ुरआन कहता है;

"हे मनुष्यों! हमने तुम्हें एक पुरुष और एक स्त्री से पैदा किया है, और तुम्हें विभिन्न जातियों और कबीलों में बाँटा है ताकि तुम एक-दूसरे को पहचान सको। निस्संदेह, अल्लाह की नज़र में तुममें सबसे ज़्यादा सम्माननीय वही है जो तुममें सबसे ज़्यादा नेक हो।" (अल-हुजुरात 49:13)

इस्लाम मे न्याय की दृष्टि से भी सभी बराबर है, सबको समान न्याय मिलना चाहिए। इस्लाम ने सिर्फ विचार नहीं दिया बल्कि उसे लागू करके दिखाया। एक बार मदीना के किसी प्रतिशिष्ट परिवार की महिला ने चोरी कर ली और लोग सिफारिश के लिय पैगम्बर हज़रत मुहम्मद स.अ.व. के पास आए तो आपने फ़रमाया:

"तुमसे पहले के लोग इसलिए बर्बाद हो गए क्योंकि अमीरों को उनके अपराधों के लिए गिरफ़्तार नहीं किया जाता और कमज़ोरों को सज़ा दी जाती। अल्लाह की क़सम! अगर मेरी बेटी फ़ातिमा भी चोरी करती, तो मैं उसका हाथ काट देता।" (बुखारी, मुस्लिम)

इसी तरह इस्लाम ने रंग और नस्ल भेद को समाप्त कर दिया, इतिहास साक्षी है कि हज़रत मुहम्मद स.अ.व. ने मक्का विजय के अवसर पर काले रंग के हबशी हज़रत बिलाल (रज़ि.) से कहा, “बिलाल, काबा की छत पर चढ़ो और नमाज़ के लिए अज़ान दो। यह दृश्य देखकर मक्का के बड़े-बड़े नेता हैरान और अचंभे मे पड़ गए। क्योंकि कल जिस बिलाल पर वो कोड़े बरसाते थे, जिनकी निगाह मे बिलाल की कोई अहमियत नहीं थी आज उसे काबे की छत पर चढ़ा कर मोअज़िन बनाया जा रहा था।  

हज के अवसर पर अपने अंतिम प्रवचन मे हज़रत मुहम्मद स.अ.व. ने फ़रमाया:

"एक अरब को गैर-अरबी पर, एक गैर-अरबी को अरब पर, एक गोरे को काले पर और काले को गोरे पर कोई श्रेष्ठता नहीं है, सिवाय तक़वा (ईशभय) के।" (मुस्नद अहमद)

इस्लाम ने सभी को इबादत में भी समानता का अधिकार दिया। पूरी दुनिया मे आज भी नमाज़ की पंक्ति मे सब एक साथ खड़े होते है, कोई छोटा बड़ा नहीं होता। ग़रीब और अमीर, राजा और मज़दूर, सभी एक ही पंक्ति में खड़े होकर नमाज़ पढ़ते हैं। जिसे जहां स्थान मिले वही खड़ा हो जाता है किसी के लिय कोई स्थान आरक्षित नहीं होता। इसी तरह रोजा भी सब पर समान रूप से फर्ज़ है और हज और ज़कात मे भी सबके लिए समान शिक्षाएं है।  

इस्लाम लैंगिग समानता की भी शिक्षा देता है। इस परिपेक्ष्य मे महिलाओं और पुरुषों मे कोई भेद नहीं है उन्हे उनकी प्रकृति के अनुसार कर्तव्य बताए गए हैं। अल्लाह क़ुरआन मे कहता है;

"वास्तव में, मैं तुममें से किसी भी व्यक्ति का कर्म व्यर्थ नहीं जाने दूँगा, चाहे वह पुरुष हो या महिला, तुम एक दूसरे से हो। (आले इमरान 3:195)

एक व्यक्ति के तौर पर गुलाम और मालिक मे भी समानता है। इस्लाम ने जहां गुलामी प्रथा को समाप्त करने को प्रोत्साहित किया वही दोनों को भाई भाई भी घोषित किया।

"तुम्हारे नौकर और गुलाम तुम्हारे भाई हैं, इसलिए उनके साथ अच्छा व्यवहार करो। उन्हें वही खिलाओ जो तुम खाओ और उन्हें वही पहनाओ जो तुम पहनो।" (बुखारी, मुस्लिम) 

इस प्रकार हम देखते हैं कि पैग़म्बर मुहम्मद स.अ.व. ने ज़ैद बिन हारिस (एक गुलाम) को गोद लिया, उन्हें अपना मुंह बोला बेटा बनाया और उनका विवाह एक प्रतिष्ठित कुरैश परिवार की महिला से कर दिया।

इस प्रकार हम देखते है की इस्लाम में समानता की अवधारणा नस्ल, रंग, भाषा, लिंग, स्थिति और वर्ग भेदों से परे है। श्रेष्ठता का एकमात्र मापदंड धर्मपरायणता और अच्छे कर्म हैं। समाज मे यही मापदंड प्रस्थापित होना चाहिए।

आरफ़ा परवीन

प्रधान संपादक

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