इंसान अदालत से ‘बाइज़्ज़त बरी’ हो जाता है लेकिन समाज से नहीं” – मनीषा भल्ला
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संवाद
इंसान अदालत से ‘बाइज़्ज़त बरी’ हो जाता है लेकिन समाज से नहीं” – मनीषा भल्ला

मनीषा भल्ला  उन पत्रकारों में से एक हैं जो हमेशा पत्रकारिता का धर्म निभाने और निष्पक्ष पत्रकारिता के लिए तत्पर रहते हैं। वह मानवाधिकार, सामाजिक विषयों और  ग्राउंड रिपोर्ट्स के लिए जानी जाती हैं। जो समाज का सच लोगों तक पहुंचाने के लिए बेचैन रहते हैं। मनीषा वर्तमान में देश के  एक बड़े मीडिया हाउस से जुड़ी हैं। इससे पूर्व वह कई प्रमुख मीडिया संस्थानों में काम कर चुकी हैं। देश में जबरन झूठे केसों में फंसाए गए निर्दोष कैदियों का सच दुनिया के सामने लाने के लिए उन्होंने बाइज़्ज़त बरीनाम से किताब लिखी, जिसमें देश के विभिन्न हिस्सों में रहने वाले उन लोगों की कहानियों का सच बयां किया जिन्हें बिना किसी जुर्म के सालों साल जेल की सलाखों के पीछे बंद रखा गया। लेकिन आखिर में वह निर्दोष साबित हुए। इसी मुद्दे पर मनीषा भल्ला से बात की आभा संपादक मंडल की सदस्य सुमैया मरयम ने। पेश है बातचीत के कुछ अंशः

प्रश्न: हमारे पाठकों के लिए अपना परिचय दीजिए।
मनिषा भल्ला: मैं पत्रकार और लेखिका हूँ।

प्रश्न: आपकी किताब बाइज़्ज़त बरी काफ़ी चर्चित है। उसके बारे में कुछ बताइए—इसे लिखने की प्रेरणा कहाँ से मिली और इसमें आपने क्या दिखाने की कोशिश की है?
मनीषा भल्ला: मैं उन दिनों आउटलुक  मैग्जीन में काम कर रही थी, उस समय अल्पसंख्यकों से जुड़ी ख़बरों का मतलब होता था सिर्फ मुस्लिम समुदाय की खबरें।  उसी दौरान दिल्ली के रहने वाले आमिर नाम के एक युवा का मामला सामने आया। वह वर्षों जेल में रहने के बाद निर्दोष साबित हुआ। उसकी गिरफ्तारी की ख़बरें हर जगह छपीं थी लेकिन जब वह बरी हुआ, तब मीडिया में उस तरह से चर्चा नहीं हुई जैसी उसकी गिरफ्तारी के समय चर्चा हुई थी।  एक रोज मैं आमिर से मिली। स्टोरी फाइल करने के बाद लगा कि आमिर तो दिल्ली में रहता है, बहुत सारे एक्टिविस्ट और मुस्लिम जमातों से उसे मदद मिल रही है लेकिन जो देश के अलग अलग कोने में अलग थलग इस दुनिया से दूर हैं उनके क्या जज्बात होंगे और हालात होंगे। 

धीरे-धीरे मुझे कई और मामले मिले, जिनमें जेल से लौटने के बाद लोगों की ज़िंदगियाँ बर्बाद हो चुकी थीं। दिल्ली में रहने वाले आमिर को तो थोड़ी मदद मिल भी गई थी लेकिन दूर-दराज़ के इलाक़ों में जिनके पास कोई सहारा नहीं था, उनकी स्थिति बहुत खराब थी। तभी मैंने तय किया कि इन सब कहानियों को मैं डॉक्यूमेंट करूँ। हालांकि उस वक्त नहीं पता था कि यह किताब की शक्ल लेगा या इसका क्या होगा। बस एक जुनून था कि पहले इन्हें डॉक्यूमेंट किया जाए। 

मैंने सब अपनी मेहनत और फंड्स से यात्राएं की—कश्मीर से लेकर महाराष्ट्र तक हर एक पीड़ित के घर गई थी , बाकायदा वहां उनके साथ समय बिताया, उनकी जुबानी , उनके परिवार की जुबानी उनकी कहानी सुनी। उनसे बातचीत की, उनकी एफआईआर और केस पढ़े और फिर इन सबको कहानियों के रूप में लिखा। 

मैं जानती हूं कि कुछ लोगों ने मेरी कहानियों के बारे में कहा कि उनमें लीगल पक्ष निकलकर सामने नहीं आया तो उनके लिए मेरा कहना है कि मैं वकील नहीं हूं, एक्टिविस्ट नहीं हूं, इतिहासकार नहीं हूं, समाजशास्त्री नहीं हूं मैं शुद्ध रूप से एक पत्रकार हूं और मैंने बिना किसी तकनीकी भाषा और मुश्किल शब्दों के आम इंसान तक इन कहानियों को पहुंचाने के लिए यह किताब लिखी थी। जिसमें मैं कामयाब भी हुई। मैं जानती हूं कि मेरी किताब को बड़े बूढ़ों ने भी पढ़ा,जवानों ने भी पढ़ा और  कई लोगों की अम्मी लोगों ने भी जब पढ़ा तो वह पढ़ते पढ़ते रोने लगीं। यही मैं चाहती थी कि हर उम्र के लोगों तक यह किताब पहुंचे। आम बोलचाल की भाषा में लिखी जाए न कि अकादमिक भाषा में। यह कोई रिसर्च नहीं थी यह वो कहानियां थी जिन्हें पीड़ितों ने अपने जिस्म पर जिया था।

  मैं चाहती थी कि अगर किसी की मां इस किताब को पढ़े तो पढ़ती चली जाएं वह अपने बेटे या बेटी से किसी शब्द का मतलब न पूछे। मैं इस कोशिश में कामयाब रही। यह किताब सामान्य पाठक तक पहुंची। हाल ही में इसका मराठी ट्रांसलेशन आया है, उर्दू आने वाला है। जिन्हें भी इसकी आम भाषा पढ़कर लगा कि इसमें फलां तकनीकी चीजें नहीं लिखी हैं तो मैं बताना चाहती हूं कि उनके लिए यह किताब लिखी भी नहीं गई थी। उन लोगों के लिए चार्जशीट है। वह उसे पढ़ें। 

प्रश्न: ऐसे मामले पीड़ितों की ज़िंदगी को किस तरह प्रभावित करते है?
मनीषा भल्ला: अदालत उन्हें बरी कर देती है, लेकिन समाज कभी बाइज़्ज़त बरी नहीं करता। पड़ोसी, रिश्तेदार, ऑफिस कलीग कभी स्वीकार नहीं करते। वकीलों द्वारा शोषण, केस की अंतहीन तारीखें, पुलिस की प्रताड़ना और जेल की यातनाएँ तो हैं ही  लेकिन असली पीड़ा जेल से बाहर आने पर शुरू होती है।

उनकी पत्नियों को घर चलाने के लिए मजबूरी में ऐसे-ऐसे काम करने पड़ते हैं जिनकी कल्पना भी मुश्किल है। हालांकि वह काम कोई मुश्किल नहीं होते हैं लेकिन वह कभी घर से नहीं निकली होती हैं। बच्चों की पढ़ाई छूट जाती है, जिससे आने वाली अगली पीढ़ी तक प्रभावित होगी। जो लोग लौटकर आते हैं, वे मानसिक, शारीरिक और आर्थिक रूप से टूट चुके होते हैं। इसमें आपको भारत का भौगोलिक विभाजन भी देखने को मिलेगा। जैसे दक्षिण भारत के पीड़ितों की सहायता के लिए उनका समाज निष्पक्ष भाव से खड़ा मिलता है। लेकिन उत्तर भारत की स्थिति इसके विपरीत है, यहां पीड़ितों को जेल से बाहर आने के बाद भी संघर्ष करना पड़ता है। इसके पीछे का कारण मुझे नहीं पता लेकिन मैंने यह बात महसूस की है। मैंने उत्तर भारत और दक्षिण के मुस्लिम समाज में एक बड़ा अंतर देखा है। हर लिहाज से। 

 प्रश्न: ऐसे हालात में उन्हें किस तरह की मदद मिलनी चाहिए?
मनीषा भल्ला: सबसे पहले तो काउंसलिंग ज़रूरी है, ताकि वे मानसिक रूप से खुद को संभाल सकें। कई ऐसे पीड़ितों से  मैं मिली हूं जिनकी जेल से बाहर आने के बाद मानसिक स्थिति ही सही नहीं हो सकी। जैसे मेरी किताब में एक कहानी है कश्मीर के गुलजार वानी की और दूसरी है रहमाना की । यह दो कहानियां मेरे लिए करना सबसे ज्यादा मुश्किल रहा। समझ नहीं आ रहा था कि कितना बात करूं, कहां से शुरु करूं, क्या कहूं कि यह लोग बोलें। एक शब्द बोलें। घंटों की मशक्कत के बाद गुलजार वानी एक शब्द बोलते थे। मैं ज्यादा बोलती थी कि उनके साथी मना कर देते थे कि ज्यादा मत पूछें इनकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं है, अब यह बात नहीं करते हैं।  जब मैं गुलजार वानी से मिलने उनके घर गई तो उनका परिवार इसी बात में खुश था कि कम से कम उनका बेटा बोलेगा आज। 

गुलजार वानी सदमे में थे कि घर परिवार में किसी से कुछ बोलते ही नहीं थे। जब मैं उनके घर गई तो उनके साथ के दूसरे पीड़ित लोगों ने बात की लेकिन वह इतने सदमे में थे कि कुछ भी जवाब नहीं दे सके। रहमाना का भी मामला ऐसा ही था। रहमाना को पता ही नहीं लगता था कि वह क्या बोल रही हैं। अभी बात शुरु करेंगी तो बात करके करते कही और कुछ और ही शुरु कर देती हैं। आज भी रहमाना के हालात ऐसे ही हैं। तो सबसे पहले ऐसे लोगों की काउंसलिंग होनी चाहिए, उन्हें मानसिक रुप से संभालने के लिए बेहतर माहौल मिलना चाहिए। वह मानसिक तौर पर मजबूत हो जाएंगे तो उनकी आधी समस्याएं दूर हो जाएंगी। दूसरे कुछ ऐसा हो कि जेल से बाहर आने पर वह कोई कारोबार कर सकें क्योंकि जेल से आने के बाद आर्थिक तौर पर काम मिलना मुश्किल हो जाता है। 


प्रश्न: इन कहानियों को लिखते हुए आपके लिए व्यक्तिगत रूप से सबसे बड़ी चुनौती क्या रही?
मनीषा भल्ला: भावनात्मक रूप से यह बेहद कठिन रहा। हर कहानी ने मुझे भीतर तक बदल दिया। मुझे सबसे ज्यादा तकलीफ़ महिलाओं की स्थिति देखकर हुई। क्योंकि हमारे यहां औरतों का पूरा संसार पति के इर्द-गिर्द होता है और जब वही जेल चला जाता है तो वे बिखर जाती हैं। बच्चों की पढ़ाई रुक जाती है, घर की ज़िम्मेदारियाँ अचानक उनके कंधों पर आ जाती हैं। मुझे पीड़ित व्यक्ति की पत्नी ऐसी ऐसी भंयकर स्थिति में मिली हैं जिन्हें देखकर रोना आता था। आप सोचिए ज़रा किस तरह एक महिला पर उसके पति के जेल जाते ही ज़िम्मेदारियां आ पड़ती हैं? वह घर संभालती है, पति के माता पिता को संभालती है, बच्चों को संभालती है, बीमार हो जाती है, जेल में पति से मिलने जाती है, उसके वकील से मिलती है, वह अचानक से ही घर का मर्द हो जाती है। जबकि इससे पहले इन तमाम कामों को उनके पति कर रहे थे। विशेषरुप से उन महिलाओं के लिए जो केवल अपने पति पर अब तक निर्भर थीं, कभी घर से बाहर निकलकर कुछ किया नहीं। ऐसे में परिवार को एवं खुद को संभालना बहुत ही कठिन काम होता है।

प्रश्नः इस किताब को लिखते समय आपके दोस्तों, परिवार और दूसरे संबंधियों की क्या प्रतिक्रिया रही?

मनीषा भल्लाः कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा। परिवार और दोस्तों को लगता था कि इसे हो क्या गया है। मत लिखो, यह हो जाएगा, वो हो जाएगा। मुसलमानों पर ही किताब क्यों वगैरह वगैरह। आप अपने ही समाज में अलग थलग पड़ जाते हैं। अब हर बात कही या लिखी नहीं जा सकती है लेकिन बहुत निराशाजनक है सब। 


प्रश्न: आप इस इंटरव्यू के द्वारा क्या संदेश देना चाहती हैं?
मनिषा भल्ला: यही किबाइज्ज़त बरीसिर्फ़ अदालत से नहीं, समाज से भी होना चाहिए। अगर सzमाज उन्हें अपराधी की तरह देखता रहेगा तो उनकी ज़िंदगी कभी सामान्य नहीं हो पाएगी। हमें मिलकर यह सुनिश्चित करना होगा कि उन्हें सम्मान के साथ जीवन जीने का अवसर मिले। साथ ही सबसे अहम चीज यह है कि लोग ग्राउंड रियलिटी को जानने की कोशिश करें और सिर्फ सोशल मीडिया की किसी पोस्ट को पढ़कर यकीन ना करें। जब आप ग्राउंड पर जाते हैं ग्राउंड की वास्तविकता की पड़ताल करते हैं तो स्थिति दूसरी होती है।

 


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