शिक्षक दिवसः सर्वोत्तम चरित्र के गुणों का प्रसार करने की आवश्यकता
“देश की शिक्षा राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है और देश का भविष्य नवीन शिक्षा के द्वारा मज़बूत बनाया जा सकता है।” यह कथन है भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्ण का जिनके जन्मदिन को हम हर साल शिक्षक दिवस के रुप में मनाते हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश हमारे देश की स्थिति शिक्षा के क्षेत्र में बेहद दयनीय बनी हुई है। शिक्षक भी बेहाल हैं और छात्रों का तो पूछना ही क्या। बड़ी संख्या में सरकारी स्कूलों को बंद किया जा रहा है और शिक्षा का निजीकरण ज़ोरों पर है। हर साल उच्च शिक्षा का बजट घटा दिया जाता है।
जो भी देश उच्च शिक्षा, शोध के क्षेत्र में आगे जाता है वह देश उतना ही अधिक तरक्की करता है। दुनिया में जितने भी नोबल पुरस्कार विभिन्न क्षेत्रों में दिए जाते हैं उनमें सबसे ज़्यादा पुरस्कार हर साल अमेरिका को मिलता है और वह नोबल पाने वाले देशों में नंबर वन पर बना हुआ है। वहीं जापान छठे नंबर पर है। जबकि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापान तबाह हो गया था। यह दोनों देश इस समय दुनिया में अपनी धाक जमाए हुए हैं तो उसका सबसे बड़ा कारण शिक्षा और शिक्षा की गुणवत्ता है। जिसमें इन देशों की बराबरी करना हमारे लिए अभी तक केवल एक सुनहरा ख़्वाब ही है।
उचित शिक्षा के अभाव का असर समाज पर भी बुरी तरह से पड़ रहा है। नैतिक मूल्यों का पतन हो रहा है, कहीं पत्नी पति की हत्या कर दे रही है तो कहीं ज़रा ज़रा सी बात पर किशोर उम्र लड़के लड़कियां अपनी ज़िंदगी तबाह कर डाल रहे हैं।
ऐसे में शिक्षक दिवस के अवसर पर हमें अपने समाज को सुधारने और उचित एवं नैतिक मूल्यों वाली शिक्षा के प्रसार पर ज़ोर देना चाहिए। शिक्षकों को चाहिए कि वह अपने विद्यार्थियों में नैतिक मूल्यों को विकसित करने का प्रयास करें। जो कि हमारी संस्कृति की सदियों से पहचान हुआ करती थी। शिक्षकों को इस दूर दृष्टि के साथ बच्चों को तैयार करना चाहिए कि वह भविष्य में किस प्रकार का मानव निर्माण चाहते हैं। एक ज़िम्मेदार शिक्षक का यह नैतिक कर्तव्य बनता है कि वह अपने विद्यार्थियों में तार्किक क्षमता और विचार विमर्श के गुण विकसित करे।
बच्चों को बचपन से इन सवालों के जवाब ढूंढने का प्रयास करना चाहिए कि:
- मानव क्या है?
- वह कहां से आया है?
- उसके जीवन का उद्देश्य क्या है?
- उसे लौटकर कहां जाना है?
- उसका दूसरे इंसानों और सृष्टि से क्या संबंध है?
यह वह सवाल है जो हमारे शिक्षकों को छात्रों को बताने चाहिए और शुरु से ही इन सवालों पर तर्क वितर्क करने की क्षमता विकसित करनी चाहिए। गांधी जी का प्रसिद्ध कथन हैः
“शिक्षकों का कर्तव्य है कि वे अपने विद्यार्थियों में उच्च नैतिक और मजबूत चरित्र का विकास करें।”
जब तक शिक्षकों ने अपने विद्यार्थियों में उच्च नैतिक और मज़बूत चरित्र विकसित करने का प्रयास किया तब तक हमने देखा दुनिया में एक से बढ़कर एक महान दार्शिनक, वैज्ञानिक, चिकित्सक इत्यादि पैदा हुए जिन्होंने संपूर्ण समाज को बदलकर रख दिया। इसका सबसे जीवंत उदाहरण हमें अरब समाज में देखने को मिलता है। आप कल्पना कीजिए अरब समाज कैसा था? चारों ओर अज्ञानता का बोलबाला था, कबीलों में बंटा हुआ समाज था जहां छोटी से छोटी बात पर लड़ाई इतनी बढ़ जाती थी कि कबीले आपस में बरसों तक एक दूसरे के दुश्मन बन जाते थे और सैकड़ों जानें चली जाती थीं। महिलाओं का कोई सम्मान नहीं था, जब किसी के घर बच्ची पैदा होती थी तो वह शर्म महसूस करता था और उसे ज़िंदा दफन कर देता था। गुलामों को इंसान समझा ही नहीं जाता था उनसे जानवरों जैसा व्यवहार किया जाता था। ऐसे घुटन भरे माहौल में हज़रत मुहम्मद सल्ल० का जन्म हुआ और जब उन्हें नबूवत मिली तो देखते ही देखते वह अरब समाज पूरी दुनिया के लिए मिसाल बन गया।
आप सल्ल० ने कहा है कि, ‘मैं एक शिक्षक बनाकर भेजा गया हूं ताकि सर्वोत्तम चरित्र के गुणों को सिखाऊं।” (बुख़ारी-अल-अदब अल-मुफ़रद, हदीस—273, मुवत्ता इमाम मालिक, किताब 47 (अच्छा चरित्र), हदीस 8)
जब उन्होंने चरित्र के यह सर्वोत्तम गुण दुनिया को सिखाना शुरु किया तो देखते ही देखते वह अरब समाज एक आदर्श समाज में परिवर्तित हो गया। जिन लोगों के बीच शराब पीना सामान्य बात थी उन लोगों ने शराब को हाथ लगाना छोड़ दिया। भरे भरे शराब के मटके नाली में बहा दिए गए, महिलाओं को सम्मान की नज़र से देखा जाने लगा और पूरा समाज अनुशासित हो गया। इसका एक जीवंत उदाहरण इस किस्से से पता चलता हैः-
जब हज़रत उमर रज़ि० के दौर में इस्लाम अरब से निकलकर दूसरे देशों में फैलना शुरु हुआ, इस्लामी सत्ता का विस्तार हुआ और मुसलमान बैतुल मुकद्दस के दरवाज़े तक पहुंच गए और यह फैसला हो गया कि अब बैतुल मुकद्दस की चाबी मुसलमानों के हाथों में आ जाएगी उस समय वहां के पादरी ने यह शर्त रखी कि हम लोग चाबी देने को तैयार हैं लेकिन शर्त यह है कि अमीरुल मोमिनीन हज़रत उमर रज़ि० स्वयं यहां आएं। जब हज़रत उमर रज़ि० को यह सूचना मिली और वह वहां पहुंचे इस हालत में कि उनके कपड़ों में कई पैबंद (टुकड़े) लगे हुए थे। हाथ में ऊंट की रस्सी थी, चेहरे पर थकन साफ़ पता चल रही थी। जब वह वहां पहुंचे तो नमाज़ का समय हो रहा था, उन्होंने इमामत शुरु की और पूरी की पूरी मुस्लिम सेना उनके पीछे खड़ी नमाज़ पढ़ने लगी, वह रुकुअ में जाते तो सब लोग एक साथ रुकुअ में चले जाते और जब वह सजदे में जाते तो सब लोग एक साथ सजदे में चले जाते। यह अनुशासित दृश्य देख पादरी और उनके साथी आश्चर्यचकित रह गए और उनसे प्रभावित हो गए।
ऐसा अनुशासन मुसलमानों में आप सल्ल० की उस शिक्षा के द्वारा आया था जिसके लिए उन्हें दुनिया में भेजा गया था। आवश्यकता है एक बार फिर से हम उस उच्च चरित्र वाली शिक्षा का समाज में प्रसार करें ताकि हमारे समाज से नैतिक मूल्यों का पतन रुक सके, हम एक आदर्श समाज की स्थापना कर सकें।
- आरफ़ा परवीन
- प्रधान संपादक, आभा ई मैग्ज़ीन