महिलाओं की वर्तमान परिस्थिति और इस्लाम में दिए गए अधिकार
हमेशा से महिलाओं की स्थिति सामाजिक,धार्मिक और कानूनी तौर पर बदलती रही। प्राचीन काल से ही महिलाओं की स्थिति इतनी दयनीय रही कि उसके वर्णन तक से रूह कांपती है।
आप ज़रा सोचें इससे क्रूर क्या हो सकता है कि एक मासूम बच्ची अगर किसी घर में पैदा हो जाती तो उसे ज़िन्दा गाड़ दिया जाता। एक मनुष्य होने के नाते हर एक को जीने का अधिकार प्राप्त है लेकिन महिलाओं को इस अधिकार से वंचित रखा जाता।
महिलाओं पर ये अत्याचार आज भी खत्म नहीं हुआ है जो बरसों से चला आ रहा है। वर्तमान समय में भारतीय नारी अपमान, शोषण, अत्याचार के जिन अभिशापों से ग्रस्त है उनमें सबसे दुःखद कन्या भ्रूण हत्या है। अखिल भारतीय जनसंख्या प्रभाग के अनुसार प्रसव के पूर्व मौत के घाट उतारी जाने वाली लड़कियों की संख्या 4 से 5 करोड़ के बीच है (ये आंकड़े 2011 की जनगणना के अनुसार है)
यही नहीं महिलाओं को अपने धार्मिक रीति रिवाज या धार्मिक पुस्तकों से ज्ञान प्राप्त करना भी उचित नहीं समझा जाता था। भारत में निम्न जाति की महिलाओं को मंदिर और अन्य धार्मिक स्थलों पर आने की अनुमति नहीं थी अगर गलती से कोई चला जाता तो उसे मौत के घाट उतार दिया जाता था। आज भी कई स्थानों पर भारत का निम्न वर्ग इस अधिकार से वंचित है।
महिलाओं पर सामाजिक दबाव हर युग में रहा और आज भी किसी ना किसी रूप में उपस्थित है। महिलाओं को अभिव्यक्ति की आज़ादी नहीं थी। वो अपनी बात परिवार के सम्मुख रखने का साहस नहीं कर पाती थी क्योंकि उसे किसी भी मामले में राय देने का या अपनी पसंद बताने का अधिकार पितृसत्तात्मक समाज ने छीन लिया था। औरत को अपनी पसंद से विवाह करने का अधिकार ना था और ना ही अपनी पसंद बताने का और ना शादी के लिए ना कहने क। इसके साथ ही यह सितम कि जो चाहे जब चाहे उससे विवाह रचा कर छोड़ भी देता था।
एक पुरुष विवाह के लिए आज़ाद था लेकिन महिला एक से रिश्ता टूट जाने के बाद जिंदगी भर अविवाहित रहती, पुनर्विवाह पर रोक थी और एक स्त्री अपनी जिंदगी अपमान के साथ गुजारती थी।
महिला पर ज़ुल्म की दास्तान यहीं खत्म नहीं होती बल्कि अगर किसी महिला का पति मर जाता तो सती प्रथा के अनुसार महिला को भी पति की चिता के साथ ज़िंदा जला दिया जाता था। और न जाने कितने अत्याचार अनकहे और अनसुने है।
महिलाओं को घर के कामकाज करने और पुरुषों का दिल खुश करने की वस्तु समझा जाता था इसलिए उन्हें शिक्षा के अधिकार से भी वंचित रखा जाता ताकि एक महिला हमेशा अनपढ़ और अंधविश्वास की बेड़ियों में जकड़ी रहे। पुरुष प्रधान समाज में हमेशा महिलाओं की दयनीय स्थिति बनी रही इसी वजह से उन्हें कानूनी अधिकार मिल पाया ना ही राजनीतिक अधिकार।
इसलिए उन्हें संपत्ति में अधिकार से भी वंचित रखा और खुद की पसंद से जिंदगी गुजारने का सपना सदैव उनकी आंखों में जगमगाता बुझ कर रह गया।
पुत्र - पुत्री के पालन पोषण में हमेशा भेदभाव किया जाता, पुरुषप्रधान समाज के लिए महिला अर्धांगिनी नाममात्र का शब्द रह गया। दक्षिण भारत की महिलाओं के साथ सबसे घटिया उत्पीड़न ये भी था कि वो अर्धनग्न हो कर रहने को विवश थी।
इन समस्त अन्याय और दुर्व्यवहार के कारण महिला मानसिक रोगों का शिकार होती रही और आज भी ये सिलसिला ख़त्म नहीं हुआ है। महिलाओ पर ज़ुल्म आधुनिक काल में भी संपूर्ण रूप से समाप्त नहीं हुआ है आज आज़ादी के नाम पर महिलाओं को अर्धनग्न कर दिया गया जिसे स्वयं महिला खुशी - खुशी स्वीकार कर रही है, स्त्री को भोग विलास की वस्तु समझा जाने लगा और परिवार -समाज में उसका वो महत्व नहीं रहा जो एक इंसान , एक महिला होने के नाते होना चाहिए।
कहीं ना कहीं एक महिला किसी घर की चारदीवारी में परेशान है तो कोई घर के बाहर आज़ादी में भी मानसिक दबाव और तनाव का शिकार है।
उदारवादी और फेमिनिज्म के दौर में भी लाखों महिलाएं ऐसी है जिनको पुरुषों के अधीन चुपचाप जिंदगी बसर करनी पड़ती है जो किसी मामले में अपनी राय देने का हक़ नहीं रखती, जो बुजुर्गों की इज्ज़त की खातिर अपनी शिक्षा को विराम लगा देती है, जो सहमी सी अपनी पसंद के बिना विवाह के बंधन में बंध जाती है, जो अपने लबों को सिल कर शारीरिक उत्पीड़न का शिकार बनी रहती है। आज भी मासूम लड़कियां दरिंदो के हाथों कुचल दी जाती है, आज भी घरों में उनकी राय नहीं मानी जाती, आज भी उसके पैदा होने पर जश्न के चिराग बुझ जाते है, आज भी घरों की दीवारें सिसकती और आंसू बहाती पीड़ित महिला की दास्तां सुनाती है।
एक महिला अगर महिला है तो उसका होना कोई श्राप नहीं है बल्कि वो ईश्वर की श्रेष्ठ कृति है उसे ईश्वर ने वो सारे अधिकार दिए जो एक पुरुष को मिलते है लेकिन जब इंसानों के कानून इंसानों पर चलते है वो वहां इसी तरह नाश होता है।
इसलिए इस सृष्टि के रचयिता ने इंसानों को इंसानों की गुलामी से निकाल कर एक ईश्वर की गुलामी के लिए प्रेरित किया और इसके लिए अपने रसूल (संदेशवाहक) भेजे और आखिरी रसूल मुहम्मद सल्ललाहु अलैहि वसल्लम को भेजा जिन्होंने जिंदगी जीने का तरीका बताया , जो संपूर्ण मानवता के लिए रहमत बनकर आए जिन्होंने महिलाओं को हया दी, परेशानहाल और सिसकती मानवता के लिए शांति का प्रतीक बनकर आए और औरतों को वो संपूर्ण अधिकार दिए जो उसे मिलना चाहिए।
धार्मिक अधिकार
इस्लाम में पुरुष और महिला दोनों ईश्वर की दृष्टि में समान है। जो धार्मिक कार्य पुरुष को करने को कहा गया है महिलाएं भी करेगी और महिलाओं को उसके द्वारा किए गए कार्यों का पुण्य भी उतना ही मिलेगा जितना एक पुरुष को मिलता है। एक मिथ्या ये भी थी महिला के द्वारा किए गए कार्यों का पुण्य उसे पूरा नहीं मिलता लेकिन हज़रत मुहम्मद सल्ल० ने इन सारी गलत बातों को ख़त्म किया।
आर्थिक अधिकार
इस्लाम में एक बालिग (व्यस्क) महिला संपत्ति खरीद सकती है, बेच सकती है, रख सकती है बगैर किसी की इजाज़त के और ये अधिकार उसे 1450 साल पहले इस्लाम ने दिए। वो अपने माल की खुद मालिक होती है जैसे एक पुरुष होता है।
जबकि ये अधिकार ब्रिटिशियस ने 1870 के अपनी महिलाओं को दिए और भारत में पिछली सदी में महिलाओं को ये अधिकार मिले है। महिलाओं को उसके पिता या पति के मर जाने के बाद उसकी संपत्ति में से हिस्सा मिलता है जिस तरह एक पुरुष का पिता की संपत्ति में हिस्सा होता है।
सामाजिक अधिकार
बेटी होने के नाते इस्लाम ने स्त्री को सबसे पहले जीने का अधिकार दिया । इस्लाम लड़का और लड़की की पैदाईश की खुशी के फ़र्क़ को भी बुरा समझता है।
मुहम्मद सल्ल० ने कहा : "जिसके घर तीन लड़कियां पैदा हुई उसने उनका पालन पोषण किया, उनकी अच्छी तरबियत की और उनको शिक्षा दी और उनकी शादी की वह स्वर्ग में जाएगा"
पत्नी होने के नाते महिला को मोहसिना (परोपकारी) कहा गया, क्योंकि इंसान विवाह करके बुरे और गंदे कामों से बचता है। औरत को अधिकार दिया कि विवाह से पहले महिला की पसंद पूछी जाए और उसकी पसंद के बिना विवाह सम्पन्न ना हो।
शादी के बाद कहा कि : "तुम में सबसे अच्छा इंसान वो है जो अपनी पत्नियों के साथ सबसे अच्छा हो।"
मां होने के नाते एक महिला दुनिया में सबसे उत्तम श्रेणी पर है। ईश्वर और नबी के बाद किसी का एहतराम, इज्ज़त अगर है तो वो मां बाप है। मां बाप में भी इस्लाम ने सबसे ज़्यादा मां को दर्ज़ा दिया है।
औरत को ये अधिकार दिया कि पारिवारिक जीवन में उससे सलाह ली जाए और अगर सही है तो उसे माना जाए, उसके साथ मारपीट ना की जाए उसके साथ बेहतर सुलूक करने वाले को स्वर्ग में जाने की खुशखबरी दी गई।
शिक्षा का अधिकार
इस्लाम कहता है कि एक महिला शिक्षा प्राप्त भी कर सकती है और उसे बांट भी सकती है।
मुहम्मद सल्ल० ने कहा - "शिक्षा हासिल करना हर मुसलमान पुरुष और महिला पर अनिवार्य है। शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार मिलने के बाद कई महिलाओं ने शिक्षा प्राप्त की और उसे लोगों तक पहुंचाया।
कानूनी अधिकार
इस्लाम ने जिस तरह पुरुष को ये अधिकार दिया है कि वह अपनी पत्नी को तलाक़ दे सकता है उसी तरह महिला को भी अधिकार दिया है कि वो चाहे तो अपने पति से तलाक़ ले सकती है। इस्लाम में इसे खुलअ कहा गया।
महिला को शादी के बाद बांध नहीं दिया गया, अगर उसके पति की मृत्यु होती है तो उसे पुनर्विवाह का अधिकार है। इस्लाम ने सारी कुप्रथाओं को तोड़ा और महिलाओं को श्रेष्ठ जिंदगी व्यतीत करने का अधिकार दिया।
राजनीतिक अधिकार
इस्लाम ने महिलाओं को लॉ मेकिंग प्रोसेस का पूरा हक़ दिया। उन्हें अधिकार दिया गया कि वो जिसे चाहे अपना खलीफा (शासक/नेता) चुन सकती है जबकि उससे पहले महिलाओं को ये अधिकार प्राप्त नहीं था। आज से 1450 साल पहले पैगम्बर मुहम्मद सल्ल० ने उन्हें ये अधिकार दिया। जबकि दुनियाभर में बाद में महिलाओं को ये अधिकार मिलने लगे और न्यूजीलैंड पहला देश था जिसने 1893 में महिलाओं को ये अधिकार देना शुरू किया था।
मान सम्मान का अधिकार
मुहम्मद सल्ल० के आने से पहले स्त्री की समाज में कोई इज्ज़त नहीं थी यहां तक महिलाएं नग्न होकर उपासना करती थी, इस्लाम ने महिला को हया की चादर दी और उन्हें अपने आप को ढांक के रखने का आदेश दिया जिससे उनकी समाज में इज्ज़त हो और कोई उन्हें बुरी नजरों से ना देखे। पर्दा महिलाओं के लिए एक सुरक्षा कवच है जिससे वो अपने शरीर को दूसरे गैर मर्दों से छुपा कर रख सकती है और इससे समाज में बुराई और बेहयाई भी नहीं फैलती।
इस्लाम ने पुरुष और महिला दोनों को बराबर अधिकार दिए जिसमें कुछ जगह पुरुष को ज्यादा तो कुछ जगह महिला कि ज्यादा अधिकार मिले क्योंकि दोनों शारीरिक, मानसिक, प्राकृतिक और मनोवैज्ञानिक रूप से अलग - अलग है।
अगर मुहम्मद सल्ल० की शिक्षाओं का पालन किया जाए तो आधुनिक युग की महिलाएं जो महिला सशक्तिकरण, महिला सुरक्षा, महिला अधिकार के नाम पर चीखती है वो सारे अधिकार उन्हें अपने आप मिल जाएं।
- ख़ान शाहीन
- संपादक, आभा ई मैग्ज़ीन