पढ़ने की घटती आदतः कारण, प्रभाव और फिर से स्थापित करने की आवश्यकता
आज की तेज़ी से बदलती दुनिया में तकनीक ने जीवन को जितना सरल और आकर्षक बनाया है, उतनी ही चुपचाप कुछ बुनियादी आदतों को कमजोर भी किया है। उन्हीं में से एक है, पढ़ने की आदत। एक समय था जब किताबें ही ज्ञान का सबसे बड़ा स्रोत मानी जाती थीं। लोग पत्रिकाएं, अखबार, कहानियाँ, आत्मकथाएँ और उपन्यास बड़े चाव से पढ़ते थे। यहां तक कि सोशल मीडिया के शुरुआती दौर में भी लोग लंबे लेख लिखते और पढ़ते थे। लेकिन जैसे-जैसे स्मार्टफोन, हाई-स्पीड इंटरनेट और सोशल मीडिया के रंग-बिरंगे प्लेटफार्म सबके हाथों में पहुंचे, लोगों की पढ़ने की आदतें धीरे-धीरे दृश्य और श्रव्य माध्यमों की ओर खिसकने लगी।
अब लोग किताबों की जगह शॉर्ट वीडियो, मीम्स और पॉडकास्ट की ओर आकर्षित हो रहे हैं। परिणामस्वरुप, अध्ययन यह संकेत दे रहे हैं कि देखने और सुनने की प्रवृत्ति, पढ़ने की तुलना में कहीं अधिक तीव्र हो गई है। यह बदलाव केवल मनोरंजन के क्षेत्र में नहीं, बल्कि शिक्षा और आत्म-विकास के स्तर पर भी देखने को मिल रहा है। पहले जहां शिक्षक और विद्यार्थी दोनों पुस्तकों पर निर्भर रहते थे, अब वे यूट्यूब वीडियो, टेलीग्राम पीडीएफ और रील्स जैसे माध्यमों का प्रयोग कर रहे हैं। ये साधन तात्कालिक ज्ञान का अनुभव तो कराते हैं, परंतु गहराई और आलोचनात्मक सोच की प्रक्रिया को पीछे छोड़ते जा रहे हैं।
पढ़ने की आदत कम होने के पीछे कई मनोवैज्ञानिक कारण भी हैं। पढ़ना एक सक्रिय और संलग्न मानसिक प्रक्रिया है, जिसमें ध्यान, कल्पना और संयम की आवश्यकता होती है। इसमें समय लगता है। इसके अतिरिक्त जब भाषागत् खामियां एवं कठिनाइयां और प्रभावी एवं आकर्षक प्रस्तुति शैली का अभाव हो तो वह भी इसके कारण बन जाते हैं। इसके विपरीत वीडियो और शॉर्ट्स देखने में तात्कालिक संतोष मिलता है और सोचने की मेहनत नहीं करनी पड़ती। यही कारण है कि लोगों की एकाग्रता क्षमता घट रही है, भाषा कुशलता और अभिव्यक्ति कमजोर हो रही है, और विचारों की गहराई कहीं गुम हो गई है। न पढ़ने से मानसिक व्यायाम की कमी होती है, जिससे व्यक्ति भावनात्मक रूप से सतही, अधीर और निर्णयहीन बनता जा रहा है। विचारों में स्थिरता नही है और न ही उसकी सोच में किसी प्रकार की क्रम बद्धता होती है।
दूसरी ओर, जो लोग नियमित रूप से पढ़ते हैं, वे न केवल भाषा में पारंगत होते हैं, बल्कि उनमें कल्पनाशक्ति, आलोचनात्मक सोच, तर्क क्षमता और आत्म-अनुशासन का भी विकास होता है। पढ़ने से व्यक्ति की सोच विस्तृत होती है, वह दुनिया और समाज को एक गहराई से देखने में सक्षम बनता है। पढ़ना न केवल ज्ञान देता है, बल्कि तनाव भी कम करता है, आत्मबल बढ़ाता है और जीवन मूल्यों की समझ विकसित करता है। वैज्ञानिक भी मानते हैं कि नियमित पठन से मस्तिष्क सक्रिय रहता है और वृद्धावस्था में भी स्मरण शक्ति बनी रहती है।
पढ़ने के अनेक लाभ हैं। यह जीवन के हर क्षेत्र में सहायक होता है, चाहे वह प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी हो, करियर निर्माण हो, या फिर व्यक्तिगत विकास। एक अच्छा पाठक स्वाभाविक रूप से एक अच्छा लेखक, वक्ता और विचारक बनता है। पढ़ने से निर्णय लेने की क्षमता सशक्त होती है, और व्यक्ति अपने विचारों को स्पष्टता एवं सुव्यस्थित ढंग से से अभिव्यक्त कर पाता है।
आज आवश्यकता है कि हम पुनः पढ़ने की संस्कृति को समाज में जीवित करें। बच्चों को कम उम्र से ही पुस्तकों की ओर आकर्षित किया जाए। स्कूलों और कॉलेजों में पुस्तकालयों को तकनीक के साथ जोड़ा जाए और पठन अभियानों की शुरुआत की जाए। माता-पिता बच्चों के सामने स्वयं पढ़ने का उदाहरण रखें, और सोशल मीडिया पर भी पठन को प्रोत्साहित किया जाए। टेक्नोलॉजी को पुस्तक का शत्रु नहीं, बल्कि सहयोगी बनाना होगा, जैसे ई-बुक्स, ऑडियो बुक्स और पठन ऐप्स के माध्यम से आधुनिकता और अध्ययन में संतुलन बैठाया जा सकता है। लेखन एवं प्रस्तुति शैली में शोध परक आवश्यक बदलाव लाया जाये।
हम कह सकते हैं कि पढ़ना केवल ज्ञान प्राप्ति का माध्यम नहीं, बल्कि मानसिक, सामाजिक और भावनात्मक विकास की नींव है। जब हम पढ़ते हैं, तो सोचते हैं, जब सोचते हैं, तो समझते हैं और जब समझते हैं, तभी समाज बदलता है। इसलिए, इस डिजिटल युग में भी किताबों से रिश्ता बनाए रखें, क्योंकि पढ़ना ही है हमारे व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक है।
ए.के.सिंह
विभागाध्यक्ष (जर्नलिज़्म एंड मॉस कम्युनिकेशन विभाग), बीबीएयू युनिवर्सिटी, लखनऊ