ब्रिक्स देशों की नई भुगतान प्रणाली, अमेरिकी डॉलर के लिए एक चुनौती?
ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका सहित ब्रिक्स (BRICS) देशों का संगठन पिछले दो दशकों में पश्चिमी देशों के आधिपत्य के विरुद्ध एक शक्ति के रूप में उभरा है। अब कुछ अन्य देश जैसे ईरान, मिस्र, इंडोनेशिया, संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब आदि भी इस समूह में शामिल हो गए हैं। हाल ही में ब्राज़ील की राजधानी रियो में आयोजित शिखर सम्मेलन में डॉलर पर निर्भरता कम करने के उपायों पर विचार किया गया और एक नई योजना को मंज़ूरी दी गई।
इसके तहत ब्रिक्स पे (BRICS PAY) नामक एक नई डिजिटल भुगतान प्रणाली (Digital Payment System) लागू करने की योजना बनाई गई है। इस नई भुगतान प्रणाली का उद्देश्य डॉलर पर निर्भरता कम करना है। नव भारत टाइम्स (11 जुलाई, 2025) ने इसे डॉलर से आज़ादी की मुहिम बताया है:
"हाल ही में, ब्राज़ील की राजधानी रियो डी जेनेरियो में ब्रिक्स देशों के नेताओं की बैठक हुई। बैठक में हाथ मिलाना, घोषणाएं करना और वैश्विक प्रशासन में सुधार की बातें हुईं। लेकिन इसके पीछे एक गंभीर सवाल यह था कि वैश्विक प्रणाली को कौन चलाता है और दुनिया कब तक अमेरिकी डॉलर पर निर्भर रह सकती है?”
अमेरिकी डॉलर के उदय की कहानी
प्रथम विश्व युद्ध से पहले ब्रिटिश मुद्रा, पाउंड स्टर्लिंग, विश्व की प्रमुख मुद्रा थी। इसका प्रयोग अंतर्राष्ट्रीय भुगतानों में होता था। उस समय स्वर्ण मानक (Gold Standard ) लागू था, अर्थात मुद्रा उसके स्वर्ण भंडार के अनुपात में छापी जाती थी। युद्ध शुरू होने पर, कई देशों ने सैन्य ख़र्च के कारण स्वर्ण मानक को अलविदा कह दिया। ब्रिटेन ने स्वर्ण मानक जारी रखा, लेकिन परिस्थितियों के दबाव में, 1931 में पाउंड स्टर्लिंग को सोने से अलग कर दिया गया। यहीं से ब्रिटेन की मुद्रा की प्रतिष्ठा में गिरावट आनी शुरू हुई। अमेरिका ने स्वर्ण मानक जारी रखा, अर्थात अमेरिका अपने स्वर्ण भंडार के अनुपात में मुद्रा छाप रहा था। द्वितीय विश्व युद्ध में, अमेरिकी डॉलर को विश्व अर्थव्यवस्था पर राज करने का अवसर मिला। द्वितीय विश्व युद्ध में, ब्रिटेन के नेतृत्व वाले मित्र राष्ट्रों को अमेरिका द्वारा बेचे किए गए हथियारों का भुगतान सोने में किया गया था। इस प्रकार, विश्व के स्वर्ण भंडार का तीन-चौथाई हिस्सा अमेरिका पहुँच गया।
1944 में ब्रेटन वुड्स समझौते (Bretton Wood Agreement) के माध्यम से 44 देशों ने यह निर्णय लिया कि अंतर्राष्ट्रीय व्यापार अब सोने से नहीं बल्कि अमेरिकी डॉलर के माध्यम से होगा और अमेरिकी डॉलर सोने से जुड़ा रहेगा। इस प्रकार, वैश्विक लेन-देन में अमेरिकी डॉलर का एकाधिकार स्थापित हो गया। 1971 में, अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन ने वियतनाम युद्ध की लागत को देखते हुए अमेरिकी डॉलर को सोने से अलग कर दिया। ऐसी आशंका थी कि इस निर्णय से अमेरिकी डॉलर की प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचेगी, इसकी भरपाई करने के लिए, अमेरिका ने 1973 में तेल उत्पादक देशों, यानी ओपेक देशों के साथ एक समझौता किया, जिसे पेट्रोडॉलर समझौता कहा गया।
इस समझौते के तहत, यह तय हुआ कि तेल का भुगतान केवल अमेरिकी डॉलर में किया जाएगा, जिसके बदले में अमेरिका ने ओपेक देशों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी ली। 2023 तक, दुनिया का 80% कच्चे तेल का कारोबार डॉलर में हो रहा था। अन्य मुद्राएँ जैसे यूरो आदि, डॉलर के मुकाबले बहुत अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकीं। इस प्रकार, यह कहा जा सकता है कि अमेरिकी डॉलर लगभग एक सदी से वैश्विक अर्थव्यवस्था का राजा रहा है। डॉलर न केवल अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का एक साधन है, बल्कि इसके द्वारा अमेरिका ने वैश्विक अर्थव्यवस्था और राजनीति में विशेष शक्ति प्राप्त कर ली है।
शिकायत
कई देश अमेरिकी डॉलर के इस एकाधिकार से नाख़ुश हैं, जिनमें रूस और ईरान सबसे ऊपर हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान अमेरिका द्वारा रूस पर लगाए गए प्रतिबंधों ने रूसी अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया है। रूस का मानना है कि अमेरिका ने अमेरिकी डॉलर पर अपने एकाधिकार के कारण यह क़दम उठाया। अमेरिका का यह एकाधिकार समाप्त होना चाहिए। इसी प्रकार, ईरान भी अमेरिका से शिकायत करता है कि उसने ईरान पर अनावश्यक प्रतिबंध लगाए हैं। चीन और कुछ अन्य देश भी अमेरिका की शिकायत करते नज़र आ रहे हैं।
नई प्रणाली
पिछले साल ब्रिक्स देशों की बैठक में समूह की अपनी मुद्रा लाने पर चर्चा हुई थी, लेकिन हाल ही में हुई बैठक में डिजिटल भुगतान प्रणाली शुरू करने का निर्णय लिया गया। इस नई भुगतान प्रणाली से डॉलर पर निर्भरता कम होगी। इस प्रणाली के माध्यम से सदस्य देशों के बीच सीधे व्यापारिक लेन-देन हो सकेगा और अमेरिकी डॉलर या अमेरिकी प्रणाली, स्विफ्ट (SWIFT) के बिना भी लेन-देन संभव होगा।
ब्रिक्स संगठन के संस्थापक देशों और अब तक इसमें शामिल हुए देशों के आर्थिक आंकड़ों पर नज़र डालें तो स्पष्ट है कि विश्व अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा इन देशों का है। फाइनेंशियल एक्सप्रेस (16 जुलाई 2025) के अनुसार- “ यह (समूह) अब विश्व जनसंख्या के 45%, सकल घरेलू उत्पाद के 37% और विश्व व्यापार के 25% का प्रतिनिधित्व करता है।” इसका अर्थ है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में इन देशों का एक महत्वपूर्ण स्थान है जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
यह निश्चित रूप से एक क्रांतिकारी निर्णय है। इस नई प्रणाली के आने के बाद अमेरिकी डॉलर के वर्चस्व और शक्ति में कमी आएगी। वैश्विक लेन-देन में अमेरिका द्वारा लगाए गए प्रतिबंध भी प्रभावित होंगे। यह भी कहा जा रहा है कि नई डिजिटल भुगतान प्रणाली अमेरिकी प्रणाली से बेहतर है। इसके माध्यम से ब्रिक्स देशों के बीच व्यापारिक लेन-देन बढ़ेगा, खासकर कृषि उत्पादों के आपसी व्यापार में वृद्धि होगी।
भारत
भारत ब्रिक्स संगठन का एक महत्वपूर्ण अंग है। ख़ास बात यह है कि नई डिजिटल भुगतान प्रणाली भारत की भुगतान प्रणाली यूपीआई UPI पर आधारित है, जिसे दुनिया में प्रचलित प्रणालियों में एक बेहतर प्रणाली माना जाता है, क्योंकि यह तेज़ गति से धन हस्तांतरण करती है। यह नई प्रणाली भारत के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को बढ़ावा देगी। यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिकी प्रशासन नई प्रणाली के कार्यान्वयन से ख़ुश नहीं है और राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने इन देशों के व्यापार पर उच्च शुल्क लगाने की बात कही है।
अमेरिकी चिंता
ब्रिक्स समूह की नई भुगतान प्रणाली अभी अपने प्रारंभिक चरण में है। लेकिन चूँकि चीन, रूस, भारत, संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब आदि कई प्रमुख अर्थव्यवस्थाएँ इससे जुड़ी हैं, इसलिए बिना अमेरिकी डॉलर के होने वाले लेन-देन निश्चित रूप से डॉलर के एकाधिकार को कुछ हद तक कम कर सकते हैं। अभी अमेरिकी डॉलर को कोई बड़ा ख़तरा तो नहीं है, मगर यह एक शुरुआत है जो भविष्य में एक वैकल्पिक प्रणाली का रूप ले सकती है और डॉलर के लिए एक चुनौती साबित हो सकती है, यही अमेरिका के लिए चिंता का विषय है।
डॉक्टर फरहत हुसैन
रिटायर्ड प्रोफेसर, रामनगर, उत्तराखंड