AIMIM के चुनाव लड़ने से बिहार में क्या बदलाव आएगा?
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राजनीति
AIMIM के चुनाव लड़ने से बिहार में क्या बदलाव आएगा?

देश में बिहार के 2025 विधानसभा चुनावों की चर्चा शुरू हो गयी है, अखबारों से लेकर मीडिया में बिहार छाया हुआ है। एक तरफ नीतीश कुमार और भाजपा हैं और दूसरी तरफ लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस हैं। चुनावों की तारीखों के ऐलान से पहले ही एक और नाम चर्चा में जुड़ गया है जिसका नाम है असदुद्दीन ओवैसी, हैदराबाद लोकसभा सीट से सांसद और मजलिस इत्तेहादुल मुस्लिम के राष्ट्रीय अध्यक्ष। 

ओवैसी साहब ने 2020 में बिहार अपने 5 विधायक जिताकर सिर्फ सबको चौंका दिया था, बल्कि नया इतिहास भी दर्ज किया था। यह असद्दुदीन ओवैसी की अपने क्षेत्र हैदराबाद के बाद सबसे बड़ी जीत थी। लेकिन इस बार वो फूंक फूंक कर कदम रख रहे हैं। इस बार ओवैसी साहब की पार्टी और "महागठबंधन" की चर्चा एक साथ आने की चल रही है। 

क्या है गठबंधन की राह? और क्या है इसकी सच्चाई? और इनकी पार्टी के चुनाव लड़ने से बिहार में क्या बदलाव सकता है? हम इसे ही समझने की कोशिश करेंगें। 

2020 का चुनाव और असदुद्दीन ओवैसी का बिहार में असर 

2020 में मजलिस के 20 उम्मीदवार मैदान में थे जिसमे से 5 विधायक बन कर पटना पहुँचने में कामयाब हुए थे। जिसमें कोचाधामन, अमौर, बैसी, बहादुरगंज और जोकीहाट सीट थी। इस परिणाम ने देशभर में दो सवाल खड़े किये थे, पहला सवाल की क्या दाढ़ी टोपी वाले नेता की पार्टी भी "मुसलमानों की पार्टी" हो सकती है?

दूसरा सवाल, बिहार में लालू प्रसाद यादव की पार्टी की सरकार बनते बनते रह गयी थी उसकी एक वजह असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी 5 सीटें जीतना और 20 सीटों पर चुनाव लड़ना भी थी

इसे समझने के लिए राष्ट्रीय राजनीति पर नज़र रखने वाली पत्रकार नाहिद फातिमा जी की टिप्पणी बेहद ख़ास है। उन्होंने कहा की "कोई भी चुनाव सिर्फ एक सीट या ज़िले से नहीं बल्कि पुरे राज्य में होता है। जैसे कि जब दिल्ली की सिर्फ दो सीटों पर ओवैसी जी की पार्टी चुनाव लड़ रही थी, लेकिन परदे के पीछे उसका असर सिर्फ आस पास की सीट बल्कि पूरी दिल्ली में हुआ।” 

इसी तरह से जब ओवैसी साहब बिहार के सीमांचल सीट की किशनगंज की जनसभा में मुसलमानों की बात करते हैं तो उसका असर बिहार के क्षेत्रों और बाक़ी सीटों पर भी होता है। वो भी तब जब सोशल मीडिया पर कुछ भी वायरल होने में ज़रा सी देर लगती है। 

2020 में क्या रहा था मुस्लिमों का रुख, राजद,जदयू या मजलिस 

इस चुनाव में 19 मुस्लिम प्रत्याशी जीते थे, जिनमें से आरजेडी के टिकट पर सबसे ज्यादा 08 मुस्लिम प्रत्याशी जीतकर विधानसभा पहुंचे थे, दूसरे नंबर पर असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM से 05 फिर कांग्रेस से 04 मुस्लिम नेता विधायक बने थे, भाकपा-माले से भी एक मुसलमान विधायक बना था. इस चुनाव में जेडीयू ने 11 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया था, लेकिन इनमें से एक भी नहीं जीता था इस चुनाव में आरजेडी ने सबसे ज्यादा 17 मुस्लिम प्रत्याशी मैदान में उतारे थे, जिनमें से 8 जीतने में सफल हुए थे 

2020 और 2025 में कितने बदल गए हैं बिहार के राजनीतिक हालात 

2024 में लोकसभा चुनावों में भाजपा ने अपनी सरकार तो बना ली लेकिन बहुमत से दूरी रही, भाजपा की केंद्र सरकार को सबसे बड़ा समर्थन बिहार की जदयू का ही है। एक तरह से बिहार ने भाजपा की सरकार बचा कर रखी हुई है। अब फिर से बिहार में चुनाव होने वाले हैं और सर्वे में तेजस्वी यादव को सबसे ज़्यादा पसंद किया जा रहा है। 

वहीँ नीतीश कुमार जो 2005 से लगातार सत्ता में बने हुए हैं उन्हें लेकर हालात अब बदले हुए से नज़र आते हैं, क्यूंकि राज्य कोई भी हो वो बदलाव चाहता है। ऐसे में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी और उनकी राजनीति की अहमियत बढ़ जाती है। दरअसल जिस 17 फीसदी मुस्लिम वोटों के बल पर मजलिस अपना कुनबा बढ़ाना चाहती है वो कांग्रेस और राजद का वोट कहा जाता है। 

राजद पिछले बार की तरह इस बार सत्ता में आना चाहती है और बिना नीतीश कुमार के आना चाहती है यह किसी से छुपा नहीं है। वहीँ ओवैसी साहब की पार्टी ने राजद के साथ गठबंधन की बात करते हुए खुद से भाजपा की बी टीम का टैग हटाने की कोशिश की है। 

एआईएमआईएम के एक प्रवक्ता ने नाम नहीं बताने की शर्त पर बताया है कि सदर साहब (असद ओवैसी) का आदेश है कि गठबंधन की पूरी कोशिश की जाए। क्यूंकि हम लोग अगर अपना 2020 का परफॉर्मेंस दोहरा भी पाए गठबंधन में रह कर तो यह हमारे लिए बड़ी जीत होगी। लेकिन ऐसा नहीं की सूरत में प्रदेश अध्यक्ष अख्तरुल ईमान ने 100 सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान किया है। 

लेकिन राजद अपने ऊपर "मुस्लिम" टैग लगाने से बच रही है, राज्यसभा सांसद मनोज झा ने कहा, "मैं एक ही बात कहूंगा कि असदुद्दीन ओवैसी का जनाधार हैदराबाद में है बिहार में उनके चुनाव लड़ने से क्या होता है नहीं होता है ये असदुद्दीन ओवैसी भी जानते हैं और उनके सलाहकार भी जानते हैं अगर आपकी मंशा है कि बीजेपी की नफरत वाली राजनीति को शिकस्त दी जाए तो कई बार चुनाव लड़ने का फैसला भी उसी तरह का फैसला होगा, मुझे उम्मीद है उस पर विचार करेंगे"  

लेकिन अंत में क्या हो सकता है?

असदुद्दीन ओवैसी ने देश की राजनीति में मुस्लिमों के नाम पर एक दबाव बनाने का काम किया है लेकिन उसका हासिल क्या है ? 2025 में दिल्ली विधानसभा चुनावों में उन्होंने दो सीटों पर चुनाव लड़ा एक पर भाजपा जीती और दूसरी पर आप, और भाजपा की राज्य में सरकार बन गयी। लेकिन इससे क्या बदलाव आया ?

मान कर चलते है कि बिहार में जिस तरह से तेजस्वी यादव को लेकर युवा उत्साहित हैं, वैसे ही परिणाम जाये और ओवैसी साहब के उम्मीदवारों की वजह से भाजपा या जदयू 5 सीटें ज़्यादा लाकर सरकार बना लें तो इसकी ज़िम्मेदारी किसकी होगी ? ओवैसी साहब की ? तेजस्वी यादव की ? किसकी ?

वहीँ अगर पूछा जाये कि इसकी सज़ा कौन भुगत सकता है तो ? जवाब है सबसे ज़्यादा ज़्यादा मुसलमान और दलित, इसलिए असदुद्दीन ओवैसी साहब की बात चुनाव लड़ना सबका हक़ है वाली बात से इत्तेफ़ाक़ रखते हुए यह सवाल भी है कि यह सब किस क़ीमत पर होगा ? उनके बिहार में चुनाव लड़ने से क्या बदलाव आएगा इसका भी आंकलन किया जाना ज़रूरी है। 

क्यूंकि अगर चुनाव लड़ना सबका हक़ है तो एक वाजिब सवाल यह है कि क्या अगर 2020 में राजद की सरकार बन जाती तो 2024 में जदयू 16 सीटें जिताकर नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बना पाती ?

इस बार बिहार के मुस्लिम वोटर वैसे भी राजद + कांग्रेस, भाकपा और प्रशांत किशोर और ओवैसी साहब को अपने ऑप्शन की तरह से देख रहा है। अब देखते हैं कि बिहार का मुसलमान किसे चुनता है और ओवैसी साहब के बिहार चुनाव लड़ने से क्या बदलाव आता है। 

असद शैख़

पत्रकार, नई दिल्ली

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