स्वतंत्रता दिवस की 78वीं वर्षगांठः चुनौतियां एवं भविष्य
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संपादकीय
स्वतंत्रता दिवस की 78वीं वर्षगांठः चुनौतियां एवं भविष्य

आज़ाद भारत के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का एक प्रसिद्ध कथन है, आज़ादी का मतलब केवल राजनीतिक स्वतंत्रता नहीं है, बल्कि यह एक ऐसी स्थिति है जहां लोगों को सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक रुप से भी आज़ाद होना चाहिए। उनका मानना था कि आज़ादी का सही अर्थ तभी समझ में आएगा जब सभी धर्मों के लोग मिल जुलकर रहेंगे।

इसी प्रकार संविधान निर्माता भीमराव अंबेडकर का मत है कि वास्तविक आज़ादी मानसिक रुप से मिली आज़ादी है। अर्थात हम अपने मन मुताबिक निर्णय लेने, रहने-सहने और अपने धर्म, अपनी परंपरा को निभाने के लिए पूरी तरह आज़ाद हों। 

हम इस 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस की 78वीं वर्षगांठ मनाने जा रहे हैं। लेकिन आज भी हमारे सामने जो सबसे बड़ा सवाल खड़ा है वह यह कि क्या हम वास्तव में आज़ाद हैं? निसंस्देह इन 78 सालों में भारत विकास के पथ पर अग्रसर रहा है। आर्थिक, सामाजिक और तकनीकी क्षेत्र में हमने उल्लेखनीय प्रगति की है। लेकिन यह भी एक कटु सत्य है कि आज भी शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार और सामाजिक समानता में महिलाएं बेहद पिछड़ी हुई हैं। शहरों में आपको बदलाव देखने को ज़रुर मिलेगा लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में, आदिवासी क्षेत्रों में आज भी महिलाओं का जीवन स्तर बदहाल स्थिति में ही मौजूद है।

आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियों का शिक्षा हासिल करना एक चुनौती भरा कार्य है। 2023 के आंकड़ों के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में मात्र 73 प्रतिशत लड़कियां ही इंटरमीडिएट तक पहुंच पाती हैं। इसी प्रकार उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी महिलाओं की भागीदारी पुरुषों के मुकाबले कम है। नौकरी में भी महिलाओं की भागीदारी कम है और जो हैं वे भी कार्यस्थल पर शोषण एवं असहज वातावरण झेलने को मजबूर हैं। कई निजी क्षेत्र ऐसे हैं जहां महिलाओं को मातृत्व अवकाश नहीं मिलता जिस कारण विवश होकर उन्हें नौकरी से हाथ धोना पड़ता है।

महिला सुरक्षा की स्थिति भी आजतक बदहाल ही बनी हुई है। यौन हिंसा, घरेलू हिंसा, मानसिक उत्पीड़न आज भी हमारे समाज के लिए चुनौती बना हुआ है। एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक, देश में हर दिन महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के 1000 मामले दर्ज होते हैं। यह आंकड़ा दर्ज मामलों का है, जबकि आधे से ज़्यादा मामलों में तो महिलाएं अपने ख़िलाफ हुए अन्याय के लिए बोलना ही नहीं चाहतीं, या बोल ही नहीं पातीं।

देश में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी भी बेहद कम है। स्थानीय स्तर पर, पंचायत स्तर पर आरक्षण के द्वारा राजनीतिक नेतृत्व करने का अवसर अवश्य मिला है, लेकिन यह सच सभी जानते हैं कि महिता नेतृत्व केवल एक डमी के रुप में होता है और सभी राजनीतिक फैसले लगभग पुरुषों द्वारा ही लिए जाते हैं। संसद एवं विधानसभाओं में तो नेतृत्व प्रतिशत बेहद कम हैं।

ऐसे में स्वतंत्रता दिवस की 78वीं वर्षगांठ के मौके पर यह सवाल उठना लाज़िमी है कि क्या हम वास्तव में स्वतंत्र हैं? क्योंकि कोई भी समाज या देश तभी विकसित और लोकतांत्रिक माना जाता है जब वहां रहने वाला हर व्यक्ति आज़ाद हो। हर क्षेत्र में सभी की समान भागीदारी हो, किसी के साथ कोई भेदभाव ना हो। हर किसी के लिए धार्मिक आज़ादी, आर्थिक एवं सामाजिक आज़ादी समान हो। न्याय समान रुप से मिले। लेकिन क्या हम आज आज़ादी के 78 साल बीत जाने के बाद यह गर्व से कहने का साहस रखते हैं कि भारत में किसी तरह का भेदभाव नहीं होता? सभी को समान रुप से आज़ादी मिली हुई है? निंस्देह हम ऐसा कहने का साहस नहीं कर सकते। क्योंकि हमारे समाज की हकीकत हमारे गौरवशाली इतिहास पर कलंक लगाए खड़ी है।

ऐसे में इस आज़ादी की वर्षगांठ पर वास्तविक आज़ादी की चर्चा होनी चाहिए। महिलाओं की आज़ादी की चर्चा होनी चाहिए। लैगिंक समानता को बढ़ावा देने एवं लैगिंक मतभेद को जड़ से मिटाने की चर्चा होनी चाहिए। महिला सुरक्षा के लिए कठोर कदम उठाए जाने चाहिए और इसे जड़ से मिटाने के लिए समाज में नैतिक रुप से जागरुकता लाने के भी प्रयास किए जाने चाहिए। तभी हम सही अर्थों में स्वतंत्रता की मूल भावना तक पहुंच पाने में समर्थ होंगे। जिसके लिए व्यक्तिगत प्रयास एवं संस्थागत प्रयास की आवश्यकता है। जिससे देश का प्रत्येक नागरिक संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों को समान रुप से प्राप्त कर सके एवं स्वयं को एक लोकतांत्रिक देश का नागरिक होने पर गौरवान्तित महसूस कर सके। तभी किसी लोकतांत्रिक देश को स्वतंत्रता दिवस की मूल भावना हासिल हो सकेगी।   


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