मतभेद रखने और सवाल करने की इजाज़त देता है इस्लाम
“दीन में कोई ज़बरदस्ती नहीं, बेशक हिदायत का रास्ता गुमराही से अलग होगा”- (सूरह बक़रा, आयत नंबर 256)
परिदृश्यः
यह आयत उस विशेष मौके पर नाज़िल हुई जब मदीना मुनव्वरा में एक किस्सा पेश आया। हज़रत इब्ने अब्बास रज़ि० सईद बिन ज़ुबैर रज़ि० और मुजाहिद रज़ि० जैसे कई मुफ़स्सिरीन (हदीस के व्याख्याकार) के मुताबिक यह आयत एक अंसारी सहाबी के बारे में नाज़िल हुई। उनके दो बेटे थे जो कम उम्र में यहुदियों के साथ रहने लगे थे और उन्होंने यहूदी धर्म अपना लिया था। जब इस्लाम आया और मदीना में इस्लामी रियासत बनी तो पिता ने चाहा कि वह दोनों बच्चे इस्लाम कबूल कर लें और वह इस पर ज़ोर देने लगे। वह नबी करीम सल्ल० के पास आए और कहा, “उन दोनों को मुसलमान करना चाहता हूं लेकिन वह नहीं मानते।” तब रसूल सल्ल० ने फरमाया “दीन में कोई जबर नहीं” और इसी मौके पर अल्लाह तआला ने यह आयत नाज़िल फरमाई। यानि दीन कबूल करने पर किसी को मजबूर नहीं किया जा सकता और वह परिस्थिति भी इस बात को साबित करती है कि इस्लाम धर्म अपनाने में कोई जबर नहीं, चाहे कोई घर के अंदर हो या समाज में।
विषय एवं चर्चा
कुरआन मजीद के संदेश में अल्लाह ने कई ऐसे सामाजिक आदर्श बयान किए हैं जो हम इंसानों को सोचने पर मजबूर करते हैं उनमें से एक महत्वपूर्ण नियम इंसानी आज़ादी और आपसी सौहार्द का है जिसे कुरआन ने इस कम और बेहतरीन शब्दों में बयान कर दिया है।
यह केवल कुछ शब्द नहीं बल्कि दीन-ए-इस्लाम के दावती दर्शन, सामाजिक नियम और अन्य धर्मों के बीच संबंध की बुनियाद है। इस्लाम अपने मानने वालों को यह हुक्म देता है कि वह मुहब्बत और हिकमत के साथ दीन की दावत का काम करें। अल्लाह तआला ने इंसान को अक्ल, सोचने समझने की सलाहियत की आज़ादी इसी वजह से दी हुई है कि वह अपनी मर्ज़ी अपनी सोच, तर्क व वितर्क और दिल की रज़ामंदी के बाद ही किसी विचारधारा को स्वीकार करे।
अल्लाह ने सच और झूठ को पूरी तरह से स्पष्ट कर दिया है और हर इंसान को यह मौका दिया जा रहा है कि वह अक्ल से काम ले। सोचे और समझे, सवाल करे और फिर जिस नतीजे पर पहुंचे उसके अनुसार रास्ता चुने।
नबी करीम सल्ल० की सीरत से रहनुमाई
रसूल सल्ल० की पूरी ज़िंदगी हमें ऐसे किस्सों से भरी मिलती है, जहां आप सल्ल० इस आयत का नमूना साबित हुए। मक्का की पूरी तेरह साल की दावती ज़िंदगी में आपकी ओर से हमेशा नरमी, मुहब्बत और हिकमत का जीवंत उदाहरण मिलता है तो वहीं मदीना में जब आपको राजनीतिक ताकत और सैन्य ताकत हासिल हुई तब भी आपने धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ सम्मानजनक और इंसाफ आधारित व्यवहार किया और आपसी बातचीत के ज़रिए ही तमाम संपर्क रखे।
इसका एक उदाहरण हमें मदीना में यहूदियों और मुस्लिम कबीलों के बीच हुए आपसी समझौते के रुप में देखने को मिलता है। इस समझौते के ज़रिए धार्मिक आज़ादी व जान माल की सुरक्षा और रियासत में बराबरी के अधिकार बांटे गए। यह दुनिया का पहला लिखित अतंर धार्मिक समझौता था।
दूसरा उदाहरण नजरान के ईसाई डेलिगेशन के साथ अच्छे व्यवहार के रुप में मिलता है। एक बार नजरान के ईसाई डेलिगेशन ने मदीना में नबी करीम सल्ल० से ना केवल मुलाकात की बल्कि उनके सवालों के जवाब भी दिए। और सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि मस्जिद नबवी में इबादत करने की भी इजाज़त दी। इससे पता चलता है कि इस्लाम दूसरे धर्म के मानने वालों को भी अपने अनुसार इबादत करने की आज़ादी देता है।
तीसरा उदाहरण हमें नबी करीम सल्ल० की ज़िंदगी से इस तरह देखने को मिलता है कि एक बार एक यहूदी का जनाज़ा सामने से गुज़र रहा था तो आप सल्ल० उसके सम्मान में खड़े हो गए। एक सहाबी ने सवाल किया कि या रसूल अल्लाह यह तो यहूदी है तो आप सल्ल० ने फरमाया, “क्या वह इंसान ना था?” (सही मुस्लिम)
यह सभी किस्से नबी करीम सल्ल० के आदर्श व्यवहार का जीवंत उदाहरण है। जिसमें धर्म के मतभेद के बावजूद सम्मान व सौहार्द झलकता है।
इस्लामी इतिहास में धार्मिक सहिष्णुता के जीवंत उदारण
नंबर एक स्पेन का उदाहरण
मुसलमानों ने स्पेन में लगभग 800 साल शासन किया। इस लंबे समय में वहां मुसलमान, यहूदी और ईसाई विद्वान, डॉक्टर, दार्शनिक, साइंटिस्ट मिलकर काम करते रहे। यह अंतरधार्मिक सहयोग का सुनहरा दौर था जहां मस्जिद, गिरजाघर और अन्य पवित्र स्थल एक दूसरे के करीब बने थे।
नंबर दो उस्मानिया सलतनत का शासन
उस्मानी ख़लीफ़ा ने विभिन्न धर्मों के मानने वालों को एक मिल्लत का दर्जा दिया जिसके तहत हर समुदाय को अपने धार्मिक कानून और अदालती व्यवस्था पर चलने की पूरी आज़ादी मिली हुई थी। यह एक अनोखा मॉडल था जिसमें दीन, राजनीति और सामाजिक सौहार्द सब एक साथ देखने को मिलता था।
आज के दौर में इस आयत का महत्व
आज के दौर में जहां धार्मिक असहिष्णुता, नफरत और जबरन धर्म परिवर्तन की घटनाएं आम होती जा रही हैं वहां यह कुरआनी संदेश एक रौशनी की किरण है जो यह बताता है कि इस्लाम ना केवल मुसलमानों को बल्कि पूरी इंसानियत को दावत देता है कि वह मतभेद के बावजूद एक दूसरे का सम्मान करें, बातचीत के दरवाज़े खुले रखें और दिलों को जीतने वाले काम करें।
आज के इस नफरती दौर में और मतभेद से भरे ज़माने में अगर इस्लाम के किसी संदेश को सबसे ज़्यादा आम करने की ज़रुरत है तो वह यही है कि दीन में ज़बरदस्ती नहीं है। आपसी मतभेदों का सम्मान हो और सवाल करने की आज़ादी हो, हर इंसान को यह हक मिले कि वह सोच विचार, तर्क वितर्क के रास्ते पर चल कर अपनी ज़िंदगी का रास्ता पूरी आज़ादी के साथ चुनें।
राफिया शेख़
अहमदाबाद, गुजरात