पश्चिमी देशों की सांस्कृतिक गुलामी का गहराता संकट
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पश्चिमी देशों की सांस्कृतिक गुलामी का गहराता संकट

यह दुनिया अपनी भौगोलिकता, संस्कृति, भाषा, खान-पान, रहन सहन इत्यादि के हिसाब से बहुत अधिक विविधताएं लिए हुए है। हर एक देश और हर एक राज्य की अपनी एक अलग संस्कृति और अपनी पहचान है। यह सांस्कृतिक विविधताएं ही इस दुनिया को खूबसूरत बनाती हैं और जब तक यह दुनिया इन सांस्कृतिक विविधताओं को साथ लेकर चलेगी, कोई एक खास कल्चर किसी पर थोपा नहीं जाएगा तब तक इस दुनिया में समावेशिता बाकी रहेगी।

लेकिन अब आधुनिकता, ग्लोबलाइज़ेशन या पॉप कल्चर और ड्रेस कोड इत्यादि के नाम पर एक प्रकार की संस्कृति अर्थात् पश्चिमी संस्कृति का प्रचार कर समूचे विश्व पर उसे थोपने की परंपरा चल पड़ी है। वैसे तो सभी इसकी मानसिक गुलामी के मकड़जाल में कैद हैं लेकिन इसका सबसे बड़ा शिकार महिलाएं ही होती हैं। 

आधुनिकता के नाम पर उन्हें पश्चिमी कल्चर की गुलामी थमा दी गई और वह भी इस आकर्षक झांसे में फंस कर रह गईं। बीच या समंदर किनारे जाना हो तो उनके लिए बिकनी ड्रेस कोड हो जाती है, जिम जाना हो तो टाइट टॉप और लेगिंग्स जैसे कपड़े ड्रेस कोड बन जाते हैं, इविनिंग गाउन से लेकर तमाम तरह की पोशाकें जो पश्चिमी समाज और संस्कृति में पाई जाती है उसे एक ग्लोबल विचार बना कर पेश किया जाता है।

यहां तक कि उत्सव, समारोह और खुशी मानने के तमाम अवसरों पर भी उन रस्मों को अपनाने का एक आम चलन हो गया है जिनका इन अवसरों पर पश्चिमी समाज अनुसरण करता है।

बर्थडे, शादी, शादी की वर्षगांठ या अन्य खुशी के अवसर दुनिया भर में लोग अपनी संस्कृति के हिसाब से मनाते रहे हैं। लेकिन अब केक कटिंग, थीम पार्टीज़ आदि का पश्चिमी कल्चर का सब अनुसरण करते हुए दिख जाएंगे। 

जब इंसान अपनी खुशियों को दूसरो के तरीके से विशेष रुप से उस तरीके से मनाने लगता है जिसे सबसे विशिष्ट बताकर दुनिया में प्रचार किया जाता है, तो फिर साथ मिलकर खुशी मनाने के भाव पर दूसरों के सामने दिखावा करने का भाव हावी हो जाता है। 

इस दुनिया से पश्चिमी देशों का औपनिवेशिक काल कब का खत्म हो चुका है लेकिन पश्चिमी देशों के गुलाम रहे देशों में अब भी पश्चिम की सांस्कृतिक गुलामी की जाती हैं। अपनी संस्कृति को कमतर आंकना, दूसरों की संस्कृति को श्रेष्ठ मानकर उसे अपनाना एक प्रकार की हीन भावना ही है। 

अगर किसी कल्चर में मानवीय मूल्य ज़्यादा हो तो फिर भी उसे अपनाने का तर्क समझ आता है, लेकिन बिना किसी विशेषता के सिर्फ एक संस्कृति को प्रचार के माध्यम से श्रेष्ठ समझ कर उसे अपना लेना सिवाय मानसिक गुलामी के और क्या हो सकता है।

दुनिया भर में जब लोग पश्चिमी देशों के तौर तरीको की गुलामी करते हैं तो यह सभ्यताओं और अधिक दंभ की भावना से भरकर दूसरों को कमतर स्वयं को श्रेष्ठ समझती हैं।

जहां मनुष्य जन्म लेता हैं वहां का मौसम, भूगोल, भाषा, धर्म इत्यादि से उसकी संस्कृति जन्म लेती हैं लेकिन यदि मनुष्य पश्चिमी देशों की संस्कृति की मानसिक गुलामी करेगा तो वो स्वयं के भूगोल, मौसम भाषा धर्म इत्यादि से जुड़ाव किस तरह महसूस कर पाएगा।

मनुष्य को अपने विकास क्रम में यह ज़रूर करना चाहिए कि अपनी संस्कृति में वो तरीके जो मानव विरोधी, मनुष्यों के मध्य भेदभाव करने वाले हैं उन्हें अवश्य त्याग दे और स्वयं की संस्कृति को हमेशा मानव हितैषी बनाने का प्रयास करें, और अगर उसे यह मानव हितैषी विचार किसी पश्चिमी देश से मिले या पश्चिमी देशों को पूर्वी देशों से, उन्हें ज़रूर अपनाना चाहिए। लेकिन इस प्रकार हीन भावना से ग्रसित होकर सांस्कृतिक गुलामी करने से मानव एवं सभ्यता का विकास होना असंभव है। 


हुमा अहमद

स्वतंत्र लेखक, नई दिल्ली

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